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________________ मंथन सिंह का मन्त्री नियत हुआ। और राणा कर्ण सिंह के परलोकवासी होने पर राणा जगतसिंह का भी प्रधान यही रहा। राणा प्रताप के समय से ही डूंगरपुर वादशाही अधीनता में चला गया था, जिससे वहां के रावल उदयपुरकी अधीनता नहीं मानते थे। इसलिये महाराणा ने अपने अक्षयराज को सेना देकर रावल पर ( जो उस समय डूंगरपुर का स्वामी था ) भेजा, उसके वहां पहुंचने पर रावल पहाड़ों पर चला गया। श्री ओझा जी ने लिखा है कि इस प्रकार चार पीढ़ियों तक स्वामिभक्त भामाशाह के घराने में प्रधान पद रहा।....भामाशाह का नाम मेवाड़ में वैसा ही प्रसिद्ध है, जैसा कि गुजरात में वस्तुपाल तेजपाल का । * भामाशाह की हवेली चित्तौड़ में तोपखाने के सामने वाले कवायद के मैदान के पश्चिम किनारे पर थी। जिसको महाराणा सज्जन सिंह ने कवायद का मैदान तैयार कराते समय तुड़वा दिया। अस्तु इस प्रकार भामाशोह का महात्याग इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय है । पर रायबहादुर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचन्द्रजी ओझा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में महाराणा प्रताप की सम्पत्ति' शीर्षक के नीचे महाराणा के निराश होकर मेवाड़ छोड़ने और भामाशाह के रुपये दे देने पर फिर चढ़ाई के लिये तैयारी करने की प्रसिद्ध घटना को असत्य ठहराया है। इस विषय में उनकी युक्ति का सार 'त्याग भूमि' के शब्दों में इस प्रकार है: "महाराणा कुम्भा और साँगा आदि द्वारा उपार्जित अतुल सम्पत्ति अभी तक मौजूद थी। बादशाह अकबर इसे अभी तक न ले पाया था। यदि यह सम्पत्ति न होती तो जहाँगीर से सन्धि होने के बाद महाराणा अमरसिंह उसे इतने अमूल्य रत्न कैसे देता ? आगे आने वाले महाराणा जगतसिंह तथा राजसिंह अनेक महादान + रा० पू० इ० खं० ती० ए० ७८७ । रा० पू० इ० ख० ती० पृ० ८३३ । * रा० पू० इ० ख० ती० पू० ७८७ । x श्री नाहटाजी का निबन्ध 'भामाशाह का घराना' ।
SR No.009392
Book TitleBhamashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherJain Pustak Bhavan
Publication Year1956
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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