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मंथन
स्वगणीयाः कृताः श्री नागोरीय लुकागणोतिख्याति माय पुनः भामाशाहेन दिगम्बर मतना नर सिंघ पौरा स्वगणे स्वमानतर बहुस्वं दत्ता १७०० गृहाणि तेषामात्मीयानि कृतानि भिंडारकादिपुरेषु ।।
अर्थात् ताराचन्द्र ने सादड़ी नगर बसाया, पौषधशालादि बनाये व अनेकों को धनादि का प्रलोभन दे नागोरी लुकामत के अनुयायी बनाये । ईडर आदि में नरसिंहपुरे दिगम्बर जैनों के १७०० घर इस गच्छ के अनुयायी थे।+
+ वीर शासन १ जनवरी १९५३ पृ. ७ ।
उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि ताराचन्द्र ने कितने लोकोपकारी कार्य किये। लुंकामत का एक सफल प्रचारक होने के कारण आज भी लंकामत के अनुयायी उसके नाम का समादर करते आ रहे हैं। जिस बावड़ी पर ताराचन्द्र की बैठक थी, उसी बावड़ी पर ताराचन्द्र, उनकी औरतों, दासियों और घोड़ी की मूर्तियाँ बना कर वि० सं० १६४८ वैशाख कृष्णा ९ को प्रतिष्ठा करवायी गयी थी । आज भी लूँकामत वाले उन मूर्तियोंकी केशर चन्दन से पूजन व अंगी रचना करते हैं, सदैव वहां जाकर दर्शन करते हैं, लोंकों के साधु साध्वियां भी वहां दर्शन करने को जाते हैं। लूकों में कोई दीक्षा हो तो पहिले ताराचन्द्र के वहां जाते हैं । तपश्चर्या हो तो गाजा बाजा के साथ बहुत लोग वहां जाया करते हैं । इतना ही नहीं, ताराचन्द्र की मूर्ति को लुंका एक तीर्थ समझते हैं ।
उक्त विवरण श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला फलौदी से सं० १९८५ में 'श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक गोड़वाड़ और सादड़ी लुकामतियों के मतभेद का दिग्दर्शन' नामक पुस्तक से उल्लिखित है। पाठक इससे भलीभाँति अनुमान लगा सकते हैं कि केवल वीरता के ही क्षेत्र में नहीं, धर्म के क्षेत्र में भी ताराचन्द्र का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। साथ ही साथ यह भी निश्चित हो जाता है कि ताराचन्द्र की मृत्यु सं० १६४८ में हुई । उपर्युक्त सतीवाड़े को मुंशी देवीप्रसादजी ने भी आर्कियोलाजिकल सर्वे के एक दौरे में कसबे सादड़ी परगना गोड़वाड़ के बाहर देखा था। अस्तु-1
वीर शासन १६ दिसम्बर १९५२ पृष्ठ ७ ।