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भामाशाह
प्रताप सिंह-क्या यही विलाव तेरी रोटी ले गया है ? राजकुमारी-(रोते हुए ) मुझे बड़ी भूख लगी है । ( पुनः रोदन)
प्रताप सिंह-( नेत्रों में अश्रु भर कर ) प्रिये ! बेटी का करुण क्रन्दन सुनने की शक्ति मुझमें नहीं । जो हृदय शत्रु की तोपों और कृपाणों के समक्ष भी वज्रवत् कठोर रहा, वह आज बेटी के क्रन्दन से मोमवत् पिघल उठा है । जिन नेत्रो ने हल्दीघाटी में शत्रु-शोणित की सरितायें प्रवाहित होते देख एक बिन्दु अश्रु नहीं टपकाया; वही आज अश्रुओं की अजस्र वर्षा कर रहे हैं । इसका विलाप सहने की क्षमता मुझमें नहीं । यदि कोई खाद्य-पदार्थ हो तो, इसे देकर चुप कराओ ।
( महाराणा का आदेश सुन कर भी महाराणी का आंसू बहाते हुए पाषाणी मूर्निवत् मौनावलम्बन )
प्रताप सिंह-(महाराणी को निरूत्तर देखकर ) क्या कोई कन्द मूल भी नहीं जिससे इसकी क्षुधा शांत कर सके ?
( उत्तर में महाराणी का अजस्र रोदन )
प्रताप सिंह-हां ! आज मेवाड़ाधिपति के परिवार की यह दशा-- कि राजकुमारी की क्षुधा-निवृत्ति के लिये तृण की भी रोटी नहीं ! यह क्षुधा की ज्वाला में जल रही है और मैं सिद्धांत-रक्षा का व्रत लिये बैठा हूं। हे वीर प्रतिज्ञ ! तुझे लेकर क्या करूं ? स्वाधीनते ! तेरे चरणों पर अर्पित करने के लिये और क्या लाऊ? मुझसे अपने ही हृदय के टुकड़े का यह रोदन नहीं देखा जाता। मैं अपने लिये नहीं, इन सुकुमार बच्चों के लिये आज वह करूंगा, जिसे करने की कल्पना मैंने स्वप्न में भी न की थी। कुछ भी हो, मैं अकबर से
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