________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [63] प्रमाण होना जैनदार्शनिकों को अभीष्ट नहीं है। जैनदर्शन में स्वपर-प्रकाशकता प्रसिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार ग्रंथ में ज्ञान की स्वपर-प्रकाशकता की प्रबल रूप में स्थापना की है। अभयदेव, विद्यानन्द, अकलंक, हेमचन्द्र, प्रभाचन्द्र और देवसूरि आदि समस्त दार्शनिक ज्ञानात्मक होने के कारण प्रमाण में स्वपर-प्रकाशकता स्वीकार करते हैं। ज्ञान प्रकाशक रूप होता है तथा विषय को जानने के साथ ही अपने विषय के ग्रहणरूप स्वभाव को भी जानता है। पर-संवेदन में 'यह पट है' तथा स्व-संवेदन में 'मैं इस पट को जान रहा हूँ' ये दोनों प्रत्येक ज्ञान के आवश्यक पक्ष हैं तथा अस्तित्व की दृष्टि से परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें से एक का निषेध करने पर दूसरे का कथन भी संभव नहीं है। ज्ञान को केवल पर-प्रकाशक मानने पर उसका पर-प्रकाशकत्व सिद्ध करना संभव नहीं है। क्योंकि जब तक विषय बोध का ज्ञान नहीं हो, विषय को 'ज्ञात' किस प्रकार कहा जा सकता है। जैसे जब तक यह ज्ञात नहीं हो कि 'पट ज्ञात हुआ है' तब तक पट को ज्ञात किस प्रकार कहा जा सकता है? इसी प्रकार ज्ञान को केवल स्वप्रकाशक मानने पर प्रकाशकता का निषेध भी नहीं किया जा सकता। ज्ञान सदैव अपने से भिन्न किसी अर्थ को जानता हुआ ही उत्पन्न होता है। वह हमें बाह्य अर्थ का परिचय देता है तथा जिस प्रकार ज्ञान से बाहर जाकर बाह्य अर्थ को सिद्ध नहीं किया जा सकता उसी प्रकार ज्ञान से बाहर जाकर बाह्य अर्थ की सत्ता का निषेध भी नहीं किया जा सकता। ज्ञान की प्रकाशकता के लिए आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति के 'चतुर्विंशतिस्तव' अध्ययन में सिद्ध में अनन्त ज्ञान कहा है, इसलिए परमात्मा की स्तुति करते हुए बताया है कि 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा' अर्थात् आप सैंकडों सूर्यों से भी अधिक प्रकाश करने वाले हैं। तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) की स्तुति करते हुए मानतुंगाचार्य ने भी कहा है 'दीपोऽपरत्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः।26 अर्थात् हे भगवन् ! आप सम्पूर्ण संसार के प्रकाशक दीपक हैं, प्रकट करने वाले हैं। जैन दार्शनिकों ने मति आदि पांच ज्ञानों का विभिन्न प्रकार से विभाजन किया है। जैन प्रमाणमीमांसा का अध्ययन उपर्युक्त पांच ज्ञानों के आधार पर ही किया गया है। अतः उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में उपर्युक्त पांच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण में समावेश किया है, जिसमें प्रथम दो ज्ञान को परोक्ष और शेष तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष में ग्रहण किया है। कालक्रम से जैनदर्शन की प्रमाणमीमांसा का उत्तरोत्तर विकास हुआ, जिसमें जिनभद्रगणि, अकलंक ने प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किए हैं - 1. सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और 2. पारमार्थिकप्रत्यक्ष। परोक्ष प्रमाण के पांच भेद किए गए हैं - 1. स्मृति, 2. प्रत्यभिज्ञान, 3. तर्क, 4. अनुमान और 5. आगम। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद प्रतिपादित किए गये-1. इन्द्रिय प्रत्यक्ष और 2. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष। ये दोनों भेद अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा रूप होते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के पुनः तीन भेद किए गए - 1. अवधिज्ञान, 2. मन:पर्यवज्ञान और 3. केवलज्ञान। इस प्रकार जैनसाहित्य में पांच ज्ञानों का वर्णन मुख्य रूप से तीन, चार और सात शैलियों अथवा भूमिकाओं में प्राप्त होता है, जो निम्न प्रकार से है। 1. आगमिकशैली - वह विशुद्ध ज्ञान-चर्चा, जिसमें ज्ञान को केवल पांच विभागों में विभाजित किया है, यथा मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान और 25. श्री कुन्दकुन्दाचार्य, 'नियमसार' मुम्बई-जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, पृ. 161-171 26. भक्तामर स्तोत्र, श्लोक 16 27. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय-सूत्र 1.9 व 12