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द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय
[53] शाश्वत धन है। इस ज्ञान के अभाव में अज्ञानी मनुष्य जरा-सी विपत्ति एवं प्रतिकूल संयोगों में घबरा जाता है, अपने सिद्धान्तों से विचलित हो जाता है। इसके विपरीत सम्यग्ज्ञानी आत्मा बडी से बड़ी विपत्ति आने पर भी नहीं घबराता है, जीवन संकट में पड़ जाने पर भी अपने सिद्धान्तों से विचलित नहीं होता है। वह अपने ज्ञान बल से विपत्तियों को जीत लेता है। इसके लिए जैनागमों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं - अन्तगड सूत्र में वर्णित गजसुकुमाल मुनि ने ध्यानावस्था में सोमिल ब्राह्मण द्वारा मस्तक पर अंगारे रखने पर भी शरीरादि पर राग और सोमिल पर द्वेष नहीं किया। आत्म-ज्ञान की शक्ति से उपसर्ग को समभाव से सहन करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर लिया, इसी प्रकार इसी सूत्र में वर्णित अर्जुनमुनि ने आत्म-ज्ञान से समभाव रखकर मात्र छह महीने में ही अपने पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान और मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। आगमों में साधु ही नहीं श्रावकों का भी उल्लेख है, जिन्होंने ज्ञान के आलम्बन से मरणासन्न कष्टों में अपूर्व समभाव को धारण करते हुए परीषहों को जीत लिया है। जैसेकि सुदर्शन श्रमणोपासक को आत्मा के अविनाशित्व, नित्यत्व का ज्ञान हृदयगंम हो चुका था, इसी ज्ञान शक्ति से वह अर्जुन मालाकार के भयंकर प्राणघातक आतंक और साक्षात् मौत को देखकर भी घबराया नहीं, समभावपूर्वक अपने आत्मा ज्ञान में स्थिर रहा है। इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित अर्हन्नक श्रावक की परीक्षा लेते हुए देव ने भयंकर उपसर्ग दिये, डराया धमकाया, प्रलोभन दिया फिर भी अर्हन्नक श्रावक अपने नियम पर मजबूत रहे थे। अत: ज्ञान बल का आचरणात्मक पहलू भी है, जिसके द्वारा मानव में ज्ञान की ऐसी शक्ति आ जाती है कि वह अपने आध्यात्मिक तत्त्व या सिद्धान्त पर अन्त तक स्थिर रहता है, वह आत्म-ज्ञान अर्थात् स्वरूप-ज्ञान से विचलित नहीं होता है, न ही उस पर शंका, कांक्षा और विचिकित्सा करके अपने सत्य (सिद्धान्त) से हटता है। अतः वह देव-दानव द्वारा प्रदत्त उपसर्ग यावत् साक्षात् मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर भी घबराता नहीं है। ज्ञान-दर्शन किसको होते हैं?
आध्यात्मिक क्षेत्र में शरीर बल की नहीं आत्मबल की आवश्यकता होती है, इसको स्पष्ट करने के लिए स्थानांग सूत्र स्थान 4 उद्देशक 2 में चार भंग प्राप्त होते हैं, यथा - किसी एक कृश शरीर वाले पुरुष को छद्मस्थ सम्बन्धी ज्ञान दर्शन अथवा केवलज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं किन्तु दृढ़ शरीर वाले पुरुष को नहीं। किसी एक दृढ़ शरीर वाले पुरुष को ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं किन्तु कृश शरीर वाले को नहीं, किसी एक कृश शरीर वाले पुरुष को भी ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं और दृढ़ शरीर वाले को भी उत्पन्न होते हैं, किसी एक न तो कृश शरीर वाले पुरुष को ज्ञान दर्शन उत्पन्न होते हैं
और न दृढ़ शरीर वाले को उत्पन्न होते हैं। इन चारों भंगों में शरीर बल हो या नहीं इससे कोई मतलब नहीं है, लेकिन जिसका आत्मबल मजबूत है उसको ही ज्ञान दर्शन उत्पन्न हो सकते हैं। ज्ञान ही चारित्र आधार
'ज्ञानस्य फलं विरतिः' सम्यक् ज्ञान जब अन्तर में स्थिर हो जाता है, सुदृढ़ हो जाता है, तब व्यक्ति उक्त ज्ञान को एवं आत्मा-अनात्मा के भेद विज्ञान को हृदयंगम कर लेता है, तब उसके कारण पर पदार्थों के प्रति, विभावों के प्रति उसकी स्वभावत: विरति हो जाती है। उसकी आत्मा प्रत्येक सजीव-निर्जीव पर पदार्थ को जरूरत पड़ने पर अपनाता है, किन्तु उसके प्रति राग, द्वेष, मोह आसक्ति या घृणा नहीं रखकर ज्ञाता - द्रष्टा बना रहता है। ज्ञान-बल के कारण उसका कषाय भाव अत्यन्त मन्द या क्षीण हो जाता है।