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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय [] विशेषावश्यकभाष्य पर 28 हजार श्लोक-प्रमाण विस्तृत वृत्तिा तथा मूल आवश्यकवृत्ति (हरिभद्रकृत) पर पांच हजार श्लोकप्रमाण टिप्पण लिखा था।
उनके ग्रंथों में जैन सिद्धांत-प्रसिद्ध चारों अनुयोगों का समावेश हो जाता है। उनके ग्रन्थ जैन धर्म के आचार और जैन दर्शन के विचार इन दोनों क्षेत्रों को आच्छादित कर लेते हैं। उन्होंने केवल विद्वद्भोग्य ग्रन्थ ही नहीं लिखे, प्रत्युत ऐसे ग्रन्थ भी लिखे जिन्हें सामान्य व्यक्ति भी अपनी भाषा में समझ सके अर्थात् उनकी ग्रन्थ-रचना संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में है। अनुयोगद्वार वृत्ति और विशेषावश्यक-भाष्य-वृत्ति जैसे गम्भीर ग्रंथों का भी उन्होंने निर्माण किया तथा साथ ही उपदेशमाला और भव-भावना जैसे लोक-भोग्य ग्रंथों का भी स्वोपज्ञ टीका सहित निर्माण किया।
मलधारी हेमचन्द्र ने विशेषावश्यकभाष्य की बृहद्वृत्ति के अन्त में स्वयं की ग्रंथ रचना का क्रम व ग्रंथों की संख्या का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है - १. आवश्यक टिप्पण २. शतक विवरण ३. अनुयोगद्वार वृत्ति ४. उपदेशमाला सूत्र ५. उपदेशमालावृत्ति ६. जीवसमास विवरण ७. भवभावनासूत्र ८. भवभावनाविवरण ९. नन्दिटिप्पण १०. विशेषावश्यकभाष्य-बृहद्वृत्ति। इन ग्रंथों का कुल परिमाण 80000 श्लोक प्रमाण है। ये सब ग्रंथ विषय की दृष्टि से प्रायः स्वतंत्र हैं। अतः उनमें पुनरावृत्ति के लिए विशेष गुंजाइश नहीं रही। यह बात माननी पड़ेगी कि उनकी लेखन प्रवृत्ति निरन्तर जारी रही होगी। 1164 में उनका छठा ग्रंथ लिखा गया तथा 1177 में अन्तिम, अतः हम यह अनुमान कर सकते हैं कि उनका रचना जीवन कम से कम 25 वर्ष का अवश्य रहा होगा।
विशेषावश्यकभाष्य-बृहद्वृत्ति को शिष्यहितावृत्ति भी कहते हैं। इस वृत्ति में प्रत्येक विषय को अति सरल एवं सुबोध शैली में समझाय गया है। इसमें भरपूर दार्शनिक चर्चा की प्रधानता होते हुए भी शैली में क्लिष्टता नहीं आने दी गई। यह टीकाकार की एक बहुत बड़ी विशेषता है। प्रश्नोत्तरप्रधान होने के कारण इसकी शैली में गोंद सा लोच पैदा हो गया है। इसे पढ़ते-पढ़ते पाठक का मन कुछ समय के लिए कृति के साथ गहरा चिपक जाता है। स्थान-स्थान पर संस्कृत कथाओं के प्रस्तुतीकरण ने इसे और भी रुचिप्रद बना दिया है। यह एक ही कृति मलधारी के व्यक्तित्व की पर्याप्त परिचायिका है। संस्कृत टीका साहित्य की श्री वृद्धि भी इससे विस्तृत हुई है।
विशेषावश्यकभाष्य क्या है एवं उसकी प्रस्तुत वृत्ति की क्या आवश्यकता है, इसका समाधान करते हुए टीकाकार ने बताया है कि सामायिक आदि षडध्ययन रूप आवश्यक की अर्थतः तीर्थंकरों एवं सूत्रतः गणधरों ने रचना की। इसकी उपयोगिता को देखते हुए आचार्य भद्रबाहु ने इस सूत्र की व्याख्यात्मक नियुक्ति लिखी। इस नियुक्ति में भी सामायिक अध्ययन की नियुक्ति को महत्त्वपूर्ण समझते हुए श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने उस पर भाष्य लिखा और भाष्य पर स्वयं ने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी। लेकिन यह वृत्ति अति गंभीर व्याख्यात्मक एवं कुछ संक्षिप्त होने के कारण मंदमति शिष्यों के लिए कठिन है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए प्रस्तुत वृत्ति प्रारम्भ की जा रही है। वृत्ति के अन्त 118. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृष्ठ 410 में दी गई सूची में नन्दिटिप्पण का उल्लेख नहीं है। 119. 'तयो मया तस्य परमपुरुषस्योपदेशं स्मृत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यकटिप्पनिकाभिधानं सद्भावनामंजूषायां नूतनफलकम्,
ततोऽपरमपि शतकविवरणनामकम्, अन्यदप्यनुयोगद्वारवृत्तिसंज्ञितम्, ततोऽपरमप्युपदेशमालासूत्राभिधानम्, अपरं तु तद्वृत्तिनामकम्, अन्यच्च जीवसमासविवरणनामधेयम्, अन्यत्तु भवभावनासूत्रसंज्ञितम्, अपरं तु तद्विवरणनामकम्, अन्यच्च झटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामंजूषाया अंगभूतं निवेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं नूतनदृढफलम् । एतैश्च नूतनफलकैर्निवेशितैर्वज्रमयीव संजाताऽसौ मंजुषा तेषां पापानामगम्या। ततस्तैरतीवच्छलघातितया संचूर्णयितुमारब्धं तद्द्वारकपाटसंपुटम्। ततो मया ससंभ्रमेण निपुणं तत्प्रतिविधानोपायं चिन्तयित्वा विरचयितुमारब्धं तद्द्वारपिधानहेतोर्विशेषावश्यकविवरणाभिधानं वज्रमयमिव नूतनकपाटसंपुटम्।'
- विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति, भाग 2, पृ. 377