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________________ [40] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 20. नमस्कार नियुक्ति - नमस्कार (अंतिम मंगल) की चर्चा करते हुए उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल इन ग्यारह द्वारों का निक्षेप सहित विस्तृत रूप से वर्णन करते हुए नमस्कार का विवेचन किया गया है। उसके पश्चात् अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार करने के कारण का वर्णन है। सिद्ध नमस्कार की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने कर्म स्थिति, समुद्घात, शैलेषी अवस्था, ध्यान आदि का विस्तृत विवेचन किया है। सिद्धों में कौनसा उपयोग है - साकार या अनाकार। इसका वर्णन करते हुए यह क्रमशः होते हैं या युगपद्, इसका समाधान किया है। भाष्यकार की मान्यता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन क्रमशः ही होते हैं, युगपद् नहीं। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय को किस प्रकार से नमस्कार करना चाहिए इसका वर्णन है। नमस्कार के प्रयोजन, फलादि द्वारों का व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने परिणाम-विशुद्धि का समर्थन किया है। (गाथा 2805 से 3294 तक) 21. पद व्याख्या - 'करेमि भंते' इत्यादि सामायिक सूत्र के मूलपदों का व्याख्यान किया गया है। 'करेमि भंते' के लिए करण शब्द का विस्तृत कथन करते हुए नाम इत्यादि इसके छह भेदों का वर्णन किया गया है। भंते (भदन्त) पद की व्याख्या की गई है। इसके बाद सामायिक, सर्व, सावध, योग, प्रत्याख्यान, यावज्जीव, विविध, करण, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा और व्युत्सर्जन इत्यादि पदों की विस्तार से व्याख्या की गई है। छहों नयों का वर्णन भी किया गया है। अन्त में भाष्य सुनने का फल बताया है। (गाथा 3229 से 3603 तक) विशेषावश्यक भाष्य के इस परिचय से स्पष्ट होता है कि आचार्य जिनभद्र ने इस ग्रंथ से जैन विचारधारा का कितनी विलक्षणता से संग्रह किया है। आचार्य की तर्कशक्ति, अभिव्यक्तिकुशलता, प्रतिपादनप्रवणता एवं व्याख्यानविदग्धता का परिचय प्राप्त करने के लिए यह एक ग्रंथ ही पर्याप्त है। वास्तव में विशेषावश्यकभाष्य जैनज्ञानमहोदधि है। जैन आचार और विचार के मूलभूत समस्त तत्त्व इस ग्रंथ में संगृहीत हैं। दर्शन के गहनतम विषय से लेकर चारित्र की सूक्ष्मतम प्रक्रिया के संबंध में इसमें पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।106 विशेषावश्यक भाष्य का महत्त्व विशेषावश्यकभाष्य में जैनागमसाहित्य में वर्णित जितने भी महत्त्वपूर्ण विषय हैं, प्रायः उन सभी पर चिन्तन उपलब्ध है। ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार, नीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्मवाद पर विशद सामग्री का इसमें संकलन है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन दार्शनिक सिद्धांतों की तुलना अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ की गई है। अन्य दार्शनिक मतों का खण्डन करते हुए इस ग्रंथ में स्वमत का समर्थन भी प्राचीन आगमिक परम्परा के आलोक में किया गया है। उक्त तार्किकदार्शनिक चर्चा में जैन आगमसाहित्य की मान्यताओं का तार्किक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। जैन आचार्यों ने इसे दुषमाकाल में अंधकार में निमग्न जिनप्रवचन को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान माना है। इस ग्रंथ की मुख्य रूप से यह विशेषता है कि तार्किक होते हुए भी श्रीमद् जिनभद्र क्षमाश्रमण ने आगमिक परम्परा को सुरक्षित रखा है। इसलिए इस ग्रंथ को आगमवादी या सिद्धांतवादी ग्रंथ माना जाता है। अत: इस ग्रंथ को जैन ज्ञान महोदधि कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि इसमें दर्शन के गहनतम विषय से लेकर चारित्र की सूक्ष्मतम प्रक्रिया तक के संबंध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। आगम के गहन रहस्यों को समझने के लिए यह भाष्य बहुत 106. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग 3, पृ. 138-201
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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