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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय [33] सम्बंध रखने वाले बिन्दुओं का वर्णन किया है। इस प्रसंग पर भाषा, शरीर, समुद्घात आदि विषयों का विस्तृत परिचय दिया है। मतिज्ञान ज्ञेयभेद से चार प्रकार (द्रव्यादि) का है। नियुक्तिकार का अनुसरण करते हुए आगे की कुछ गाथाओं में आभिनिबोधिक ज्ञान का सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन द्वारों से विचार किया गया है। व्यवहारवाद और निश्चयवाद का भी वर्णन हुआ है।
श्रुतज्ञान का विशेष वर्णन करते हुए अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और इनके प्रतिपक्षी सात इन चौदह भेदों का वर्णन करते हुए औपशमिक आदि पांच समकित का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। उपयोगयुक्त श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को जानता है, किन्तु उनमें से अपने अचक्षुदर्शन से कुछ को ही देखता है। ऐसा क्यों? इसका भी उत्तर भाष्यकार ने दिया है। ज्ञान ग्रहण के आठ गुण हैं, वे इस प्रकार हैं - शुश्रूषा, प्रतिपृच्छा, श्रवण, ग्रहण, पर्यालोचन, अपोहन (निश्चय), धारण और सम्यक् अनुष्ठान। भाष्यकार ने नियुक्तिसम्मत इन आठ प्रकार के गुणों का संक्षिप्त विवेचन किया हैं।
(गाथा 80 से 567 तक) ३. अवधिज्ञान का विस्तृत वर्णन करते हुए भाष्यकार ने नियुक्ति की गाथाओं का बहुत विस्तार से व्याख्यान किया है। भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय भेदों का वर्णन चौदह प्रकार के निक्षेपों के माध्यम से किया गया है।
(गाथा 568 से 808 तक) ४. मन:पर्यवज्ञान से मनुष्य के मानसिक परिचिंतन का प्रत्यक्ष होता है। यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र तक सीमित है, गुणप्रत्ययिक है और चारित्रशील को होता है। इस प्रकार मन:पर्यवज्ञान के भेद, विषय, स्वामी इत्यादि का वर्णन किया गया है, अवधिज्ञान से मनःपर्यवज्ञान की विशेषताएं बताई हैं।
(गाथा 810 से 822 तक) ५. केवलज्ञान सर्वद्रव्य तथा सर्वपर्यायों को ग्रहण करता है। वह अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, एक ही प्रकार का है। यह ज्ञान सर्वावरणक्षय से उत्पन्न होने वाला है, अतः सर्वोत्कृष्ट है, सर्वविशुद्ध है, सर्वगत है। केवली किसी भी अर्थ का प्रतिपादन प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा ही करते हैं इत्यादि अनेक प्रकार से केवलज्ञान का वर्णन यहाँ सम्प्राप्त है।
(गाथा 823 से 836 तक) इस प्रकार ज्ञान पंचक के वर्णन के साथ ही मंगल द्वार की समाप्ति होती है।
5. समुदायार्थ द्वार - पांच ज्ञानों में श्रुत ज्ञान ही मंगलार्थ (अनुयोग) है। क्योंकि यह ज्ञान ही स्व-पर बोधक है। अतः इसीका यहाँ अनुयोग है। अनुयोग का अर्थ है - सूत्र का अपने अभिधेय से अनुयोजन। प्रस्तुत शास्त्र का नाम आवश्यक श्रुतस्कंध है। इसके सामायिकादि जो छह भेद हैं, उन्हें अध्ययन कहते हैं। अत: 'आवश्यक', 'श्रुत', 'स्कंध', 'अध्ययन' आदि पदों का पृथक्-पृथक् अनुयोग करना चाहिए। 'आवश्यक' का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार प्रकार का निक्षेप होता है। द्रव्यावश्यक का आगम और नोआगम रूप से विस्तृत वर्णन किया गया है। अधिकाक्षर, हीनाक्षर इत्यादि को उदाहरण से समझाया है। आवश्यक के प्रभेदों का कथन किया गया है। आवश्यक के पर्याय, इसी प्रकार श्रुत स्कंध आदि का निक्षेप विधि से विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। आवश्यक श्रुतस्कंध के छह अध्ययनों के अर्थाधिकार का वर्णन भी उपलब्ध है।
(गाथा 837 से 902 तक)