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1. आवश्यकसूत्र के कर्त्ता के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाला गया कि चतुर्विध संघ में पहले दिन भी साधु-साध्वियों को आवश्यक करना अनिवार्य होता है एवं उस दिन दीक्षित सभी साधु-साध्वी विशिष्ट मति वाले नहीं होते हैं, अतः उनके लिए गणधर द्वादशांगी की रचना के साथ ही संभवतया आवश्यक की भी रचना करते हों, किन्तु वर्तमान में जो आवश्यक प्राप्त होता है, वह पूर्णत: गणधर कृत नहीं है। उसमें कालक्रम से पूर्वाचार्यों ने परिवर्तन किया है। अतः वर्तमान में प्राप्त आवश्यक का कुछ भाग गणधरकृत और कुछ भाग स्थविरकृत हो सकता है।
2. इसी प्रकार आवश्यकनिर्युक्ति के कर्त्ता के सम्बन्ध में यह माना जा सकता है कि निर्युक्ति की रचना चतुर्दशपूर्वधारी भद्रबाहु से प्रारंभ हो गई थी और कालक्रम से उनमें प्रसंगानुसार गाथाएं जुड़ती गई और अन्त में नैमित्तिक भद्रबाहु ने परिष्कृत स्वरूप प्रदान किया है।
3. श्वेताम्बर आगमों में मन के दो भेद - द्रव्यमन और भावमन नहीं है, इसकी पुष्टि की गई
है ।
4. आगमानुसार एकेन्द्रियादि असंज्ञी प्राणियों में भाव मन नहीं होता है, इस मत को पुष्ट किया गया है।
5. नंदीसूत्र में तो अवग्रहादि चार भेद श्रुतनिश्रित के ही बताये हैं, लेकिन स्थानांगसूत्र के अनुसार श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दोनों के अवग्रहादि भेद किये हैं, इसके कारण को स्पष्ट किया गया है।
6. व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के स्वरूप में पूज्यपाद, जिनभद्रगणि और वीरसेनाचार्य में मतभेद का उल्लेख कर समन्वय स्थापित किया गया है।
7. भगवतीसूत्र में मतिज्ञान के विषय में 'जाणइ' 'पासइ' क्रियाओं का उल्लेख है जबकि नंदीसूत्र के में ‘जाणइ ण पासइ' क्रिया का प्रयोग किया गया है, इस आगम भेद के कारण को स्पष्ट किया गया है ।
8. आगम के व्याख्याकारों के अनुसार एकेन्द्रिय में एक द्रव्येन्द्रिय और पांचों भावेन्द्रियाँ होती हैं, जबकि आगमानुसार एकेन्द्रिय में एक द्रव्येन्द्रिय और एक ही भावेन्द्रिय होती है, इस मान्यता की पुष्टि की गई है।
9. श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में मान्य द्वादशांगों के स्वरूप का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसकी समीक्षा की गई है।
10. जिनभद्रगणि के अनुसार श्रुतज्ञान के विषय के सम्बन्ध में नंदीसूत्र में 'जाणइ पासइ' के स्थान पर ‘जाणइ न पासइ' प्रयोग होना चाहिए था, क्योंकि श्रुतज्ञानी अचक्षुदर्शन से नहीं देखता है। श्रुतज्ञानी कैसे देखता है, इसको आगम आधार से स्पष्ट किया गया है।
11. प्रज्ञापना सूत्र के 33वें पद एवं नंदीसूत्र में पाये जाने वाले अवधिज्ञान के भेदों में जो भिन्नता है, उसका कारण स्पष्ट किया गया है।
12. अवधिज्ञान के जघन्य विषय क्षेत्र की समीक्षा करते हुए आगमानुसार यह सिद्ध किया गया है कि अवगाहना का संकोच परभव (गत्यन्तर) में ही होता है ।
13. विशेषावश्यकभाष्य के अलावा किन्हीं - किन्हीं ग्रन्थों में द्रव्य वर्गणा के बयालीस प्रकारों का उल्लेख भी प्राप्त होता है, उनकी संगति बिठाई गई है।