________________
उपसंहार
भारतीय दार्शनिक प्रस्थानों में ज्ञानमीमांसीय चर्चा का विशिष्ट महत्त्व है। जैन दर्शन में ज्ञान के स्वरूप एवं उसके भेदों का विस्तृत निरूपण प्राप्त होता है। ज्ञान शब्द का निर्माण 'ज्ञा' धातु से 'ल्युट (अन्)' प्रत्यय लगकर हुआ है। जिसका अर्थ है जानना। मोक्ष मार्ग में ज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ज्ञान के बिना साधक साधना के क्षेत्र में विशेष प्रगति नहीं कर सकता। इसीलिए उत्तराध्यन सूत्र के अठाईसवें अध्ययन में पहले ज्ञान को रखा गया है। दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में भी 'पढमं नाणं तओ दया' कहकर ज्ञान के महत्त्व को उद्घाटित किया गया है। ज्ञान के बिना क्रिया (चारित्र) में कदम आगे नहीं बढ़ पाते हैं, इसलिए ज्ञान परमावश्यक है। भारतीय दर्शन में हमें प्रमुखतः ज्ञान के दो स्वरूप प्राप्त होते हैं - एक इन्द्रियजन्य ज्ञान, दूसरा अतीन्द्रिय ज्ञान। इन्द्रियजन्य ज्ञान जहाँ जीवन व्यवहार में उपयोगी होता है। वहाँ अतीन्द्रिय ज्ञान अविद्या के नाश के लिए उपयोगी होता है। यह अतीन्द्रिय ज्ञान ही समस्त दु:खों का क्षय कर मुक्ति प्राप्ति का हेतु बनता है।
ज्ञान आत्मा का गुण है। न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा एक द्रव्य है, जिसमें ज्ञानादि गुण रहते हैं। जैन-दर्शन ज्ञान को आत्मा या जीव का गुण स्वीकार करके भी उसे आत्मा का स्वरूप मानता है। एक द्रव्य है दूसरा गुण है, तथापि इनका पृथक् अस्तित्व नहीं है। मुक्ति की अवस्था में भी ज्ञान गुण आत्मा से पृथक् नहीं होता है। जैन दर्शन मुक्त जीव को केवलज्ञानी अथवा अनन्त ज्ञानी स्वीकार करता है। ज्ञान के बिना चेतना को नहीं समझा जा सकता तथा जहाँ चेतना है, वहाँ ज्ञान है और जहाँ ज्ञान है, वहाँ आत्मा है। जैन दर्शन में ज्ञान (साकार उपयोग) के अतिरिक्त दर्शन (अनाकार उपयोग), सुख, वीर्य (पराक्रम) आदि को भी आत्मा का गुण अंगीकार किया गया है। ज्ञान करण भी है और कर्ता भी। जानने की क्रिया का फल भी ज्ञान ही है ।
जैन दर्शन में प्रतिपादित ज्ञान के स्वरूप की कतिपय विशेषताएं इस प्रकार हैं -
1. ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होता है अर्थात् ज्ञान ज्ञेय वस्तु का भी जानता है, एवं स्वयं को भी जानता है।
2. ज्ञान सविकल्प होता है, निर्विकल्पक नहीं। बौद्ध, न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शनों में ज्ञान को सविकल्पक एवं निर्विकल्पक के भेद से दो प्रकार का निरूपित किया गया है। जबकि जैनदर्शन में ज्ञान सविकल्पक ही होता है, निर्विकल्पक बोध के लिए जैन दार्शनिक 'दर्शन' शब्द का प्रयोग करते हैं। पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है। दर्शन एवं ज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली अत्यन्त प्राचीन है। राजप्रश्नीय सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, षट्खण्डागम आदि इसके प्रमाण है। यही नहीं, जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकटीकरण के लिए ज्ञानावरण के क्षयोपशम अथवा क्षय को अनिवार्य माना गया है। जबकि दर्शन के प्रकटीकरण के लिए दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय का आधार बनाया गया है। इस प्रकार जैन दर्शन में दोनों एकदम पृथक् हैं।
3. इस सविकल्पक ज्ञान को साकार उपयोग के नाम से भी जाना जाता है।।
4. ज्ञान आत्मा का आगंतुक गुण नहीं, अपितु निज स्वरूप है। वह गुण एवं उपयोग इन दो स्वरूपों में उपलब्ध होता है। गुण रूप में वह जीव या आत्मा में सदैव उपलब्ध रहता है, जबकि उपयोग अर्थात् बोध रूप व्यापार क्रम से होता है।