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सप्तम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
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युगपद् नहीं हैं, परन्तु देश से तो हो सकता है। तो छद्मस्थ में उसका निषेध किस लिए किया है ? यदि छद्मस्थ के युगपद् उपयोग नहीं हो सकता है तो केवली के भी नहीं हो सकता है । 229
6. केवली को यदि क्रमशः ज्ञान-दर्शन उपयोगवाला मानेंगे तो जिस समय जिस ज्ञान-दर्शन में उपयोग होगा वही ज्ञान अथवा दर्शन उनके होगा और जिस ज्ञान-दर्शन में उपयोग नहीं होगा वह उस समय में खरश्रृंग के समान अनुपलब्ध होगा । ऐसा मानना भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि क्योंकि छद्मस्थ के दर्शन त्रिक (दर्शन, ज्ञान और चारित्र) का युगपद् उपयोग नहीं होता है । इसलिए जो दर्शनादि तीन में से एक में अनुपयुक्त होता है, तो उसको आपके अनुसार साधु नहीं कह सकते हैं, परन्तु लोक में और सिद्धान्त में उसको साधु कहा जाता है। इसलिए क्रम से उपयोग मानने में यह दूषण प्राप्त नहीं होता है । 'जहाँ उपयोग नहीं होता वहाँ अविद्यमान है' इस कथनानुसार ज्ञान-दर्शन की अविद्यमाता प्राप्त होगी और ऐसा होने से ज्ञान दर्शन का उपयोग जो 66 सागरोपम से अधिक काल पर्यन्त कहा है, वह भी अयोग्य हो जाएगा। लेकिन आगमों में चार ज्ञान और तीन दर्शनवाले छद्मस्थ जैसे गौतमादि प्रसिद्ध ही हैं । 230
7. भगवतीसूत्र के शतक 18 उद्देशक 1 के अनुसार 'केवली णं भंते! केवलोवओगेणं किं पढमा अपढमा ? गोयमा ! पढमा नो अपढम त्ति' अर्थात् हे भगवन्! केवली केवलोपयोग से प्रथम है कि अप्रथम है ? हे गौतम! प्रथम है अप्रथम नहीं। जिस जीव ने जो भाव पहले भी प्राप्त किये हैं, उसके उसकी अपेक्षा से वह भाव अप्रथम है। जैसे जीव को जीवत्व ( जीवपन) अनादिकाल से प्राप्त होने के कारण जीवत्व की अपेक्षा से अप्रथम है। जो भाव जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हुए हैं. उन्हें प्राप्त करना, उस भाव की अपेक्षा से प्रथम है, जैसे सिद्धत्व प्रथम है, क्योंकि वह जीव को पहले भी प्राप्त नहीं हुआ था । इसी प्रकार केवली केवलोपयोग (केवलज्ञान और केवलदर्शन का उपयोग केवलोपयोग) से प्रथम है, अप्रथम नहीं है, क्योंकि उनको वह पहले प्राप्त नहीं हुआ था। पहले प्राप्त हुए का पुनः ध्वंस ( नाश) नहीं होता है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके हमेशा उभय उपयोग रहता है। जो क्रम से उपयोग मानते हैं तो उनके अनुसार एक उपयोग का बार-बार नाश और बार-बार उत्पाद होता है और इससे केवली में अप्रथमपना प्राप्त होता है । इसका समाधान करते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं कि 'केवलोपयोग' में केवलज्ञान और केवलदर्शन का ग्रहण किया है। उनमें एक उपयोग अन्य से अव्यतिरिक्त होने से उनकी परस्पर अनर्थान्तरता होती है, क्योंकि ज्ञान- दर्शन एक ही वस्तु है । यह हमारे अनुकूल है 231
8. 'केवलोपयोग से' केवलज्ञान और केवलदर्शन का ग्रहण करके केवलज्ञान और केवलदर्शन में एक रूपता दिखाई है। अथवा एक ही क्षायिकज्ञान रूप वस्तु को केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप पर्याय शब्द से विशेषित किया जाता है, लोकव्यवहार में भी करके इन्द्र, पट, वृक्ष आदि वस्तुओं को स्व-स्व पर्यावाची शब्दों से विशेषित किया है। तो फिर यहाँ केवलोपयोग को भी ऐसे पर्याय शब्द से विशेषित मानने में क्या बाधा है ? यह प्रमाण भी आगम के विपरीत है। क्योंकि भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि में स्पष्ट रूप से कहा है कि जिनेश्वर परमाणु और रत्नप्रभा आदि वस्तुओं को जिस समय जानते हैं, उस समय देखते नहीं हैं । परन्तु अन्य समय जानते हैं और अन्य समय देखते हैं। जैसे कि भगवती सूत्र के अनुसार - हे भगवन् ! परमावधि ज्ञानवाले मनुष्य जिस समय परमाणु पुद्गल 229 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3104-3105
230. वशेषावश्यकभाष्य गाथा 3106-3107
231. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3108-3109
232. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भाग 3, शतक 18 उ. 8, पृ. 732-735