SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [480] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन संघवी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरण, प्रस्तावना में हरिभद्र सूरि और अभयदेवसूरि में किस कारण से भिन्ननता पाई जाती है, इत्यादि विषय पर विस्तार से चर्या की है। 1. अभेदवाद सन्मतितर्क के रचयिता सिद्धसेन दिवाकर की मान्यता है कि-केवली भगवान् के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग - केवलज्ञान केवलदर्शन दोनों एक साथ प्रयुक्त होते हैं अर्थात् केवली निश्चित रूप से एक समय में जानते-देखते हैं, छद्मस्थ नहीं। क्योंकि ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय दोनों कर्मों का क्षय युगपद् होता है। यदि क्षय साथ में होता है तो क्षय से होने वाले उपयोग में 'यह पहले होता है और यह बाद में होता है' इस प्रकार का भेद कैसे सम्भव है?208 क्योंकि जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण एक साथ् क्षय होने से काल का भेद नहीं है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि पहले केवलदर्शन होता है, फिर केवलज्ञान होता है। यदि कहें की दोनों युगपद् होते हैं तो भी उचित नहीं है, क्योंकि एक साथ दो उपयोग हो नहीं सकते हैं। अतः इस समस्या के निराकरण के लिए यही मानना उचित है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता है। केवलज्ञान से ही सभी विषयों का ज्ञान हो जाता है, तब केवलदर्शन का कोई प्रयोजन नहीं रहता है अर्थात् केवलज्ञान होने पर केवलदर्शन की सत्ता विलुप्त हो जाती है। 2. युगपद्वाद केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपद् होता है। जैसे सूर्य का प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं209 अर्थात् निरावरण ज्ञान-दर्शन भी एक साथ अपने-अपने विषय को ग्रहण करते हैं, क्रमश: नहीं। पूज्यपाद के अनुसार - ज्ञान साकार है,दर्शन अनाकार है। छद्मस्थ में वे क्रमशः होते हैं, केवली में युगपद् होते हैं 10 __ मुक्तात्माओं में सुप्तावस्था की भांति बाह्य ज्ञेय विषयों का परिज्ञान नहीं होता ऐसा सांख्य लोग कहते हैं उनके खण्डनार्थ जगत्त्रय, कालत्रयवर्ती सर्वपदार्थों को युगपद् जानने वाले केवलज्ञान के स्थापनार्थ 'ज्ञानमय' यह विशेषण दिया है। ऐसा ही वर्णन षट्खण्डागम में भी प्राप्त होता है। 12 जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं, उन सबको वह युगपद् प्रकाशित करता है, वैसे सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञेयों को युगपद् जानता है।13 केवलज्ञान सर्वांग से जानता है जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थों को जान लिया है वे सिद्ध है।14 यदि कहा जाय कि केवली आत्मा के एकदेश से पदार्थों का ग्रहण करता है, तो यही उचित नहीं है, क्योंकि आत्मा के सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरण कर्मों का निर्मूल विनाश होता है। इसलिए केवल उसके एक अवयव से पदार्थों का ग्रहण मानने में विरोध आता है। अत: केवली प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थों को युगपद अपने सभी अवयवों से जानता है। ऐसा ही वर्णन प्रवचनसार216 में भी है। 207. ज्ञानबिन्दुप्रकरण, प्रस्तावना पृ. 54-62 208. सन्मतितर्क प्रकरण 2.9 209. नियमसार गाथा 159 210. तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते। निरावरणेषु युगपद् । सर्वार्थसिद्धि, 2.9 पृ. 118 211. मुक्कात्मना सुप्तावस्थावबहिर्जेयविषये परिज्ञानं नास्तिीति सांख्या वदन्ति, तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवति 'सर्वपदार्थयुगत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमय-विशेषणं-कृतमिति। - परमात्मप्रकाश, अ. 1 गा. 1 पृ. 6-7 212. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.82, पृ. 346 213. भगवती आराधना, गाथा 2136, पृ. 901 214. षट्ख ण्डागम, पु. 1, सूत्र 1.1.1 पृ. 27 215. कसायपाहुडं, पु. 1, पृ. 57-58 216. प्रवचनसार (त. प्र.) पृ. 47
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy