________________
प्रथम अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय
जिनभद्र सिद्ध होते हैं किन्तु हरिभद्र के उल्लेखों से ऐसा फलित होता है कि जिनभद्र उनके गच्छपति गुरु थे, जिनदत्त दीक्षाकारी गुरु थे, याकिनी महत्तरा धर्मजननी ( धर्ममाता ) थी। उनका कुल विद्याधरगच्छ एवं सम्प्रदाय श्वेताम्बर था । आचार्य हरिभद्र ग्रंथ सूची में 73 ग्रंथ समाविष्ट हैं। कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रंथों की रचना की थी। इसका कारण बताते हुए कहा गया है कि 1444 बौद्धों का संहार करने के संकल्प के प्रायश्चित्त के रूप में उनके गुरु ने उन्हें 1444 ग्रंथ लिखने की आज्ञा दी थी।
[25]
आवश्यक वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर है । इस वृत्ति में टीकाकार ने आवश्यक चूर्णि का अनुसरण नहीं करते हुए स्वतंत्र रीति से निर्युक्ति - गाथाओं का विवेचन किया है । वृत्ति में ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए आभिनिबोधिक ज्ञान का छह दृष्टियों से विवचेन किया है। श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान का भी भेद-प्रभेद आदि की दृष्टि से विवेचन किया है। पांच ज्ञानों की व्याख्या में वैविध्य का पूरा उपयोग किया है। यह व्याख्यावैविध्य चूर्णि में दृष्टिगोचर नहीं होता ।
सामायिक-निर्युक्ति का व्याख्यान करते हुए प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर वृत्तिकार ने वादिमुख्यकृत दो श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें यह बताया गया है कि कुछ पुरुष स्वभाव से ही ऐसे होते हैं जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती है। इसमें वीतराग के प्रवचनों में कोई दोष नहीं है। दोष सुनने वाले उन पुरुष - उलूकों का है जिनका स्वभाव ही वीतराग - प्रवचनरूपी प्रकाश में अन्धे हो जाना है। सामायिक के उद्देश, निर्गम क्षेत्र आदि 23 द्वारों का विवेचन किया गया ' निर्गम द्वार का वर्णन करते हुए कुलकरों की उत्पत्ति का वर्णन है। नाभि कुलकर के प्रसंग में भगवान् ऋषभदेव के जीवन चरित्र का वर्णन करते हुए आचार्य ने नियुक्ति के कुछ पाठान्तर भी दिये हैं। सामायिकार्थ का प्रतिपादन करने वाले चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के शासन में उत्पन्न चार अनुयोगों का विभाजन करने वाले आर्यरक्षित के जीवन का भी विस्तृत वर्णन मिलता है।
द्वितीय आवश्यक 'चतुर्विंशतिस्तव' तृतीय आवश्यक 'वंदना' का निर्युक्ति के अनुसार विवेचन करते हुए चतुर्थ आवश्यक प्रतिक्रमण की व्याख्या के प्रसंग पर आचार्य ने ध्यान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ध्यानशतक की सारी गाथाओं का व्याख्यान किया है। परिस्थापना की विधि का वर्णन करते हुए पूरी परिस्थापनानिर्युक्ति उद्धृत कर दी है।
पंचम आवश्यक कायोत्सर्ग के अन्त में 'शिष्यहितायां कायोत्सर्गाध्ययनं समाप्तम्' ऐसा पाठ
है । आगे भी ऐसा पाठ है। इससे विदित होता है कि प्रस्तुत वृत्ति का नाम शिष्यहिता है । कायोत्सर्ग
T
का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं कि कायोत्सर्ग विवरण से प्राप्त पुण्य के फलस्वरूप सभी प्राणी पंचविध काय (शरीर) का उत्सर्ग करें।
पष्ठ आवश्यक प्रत्याख्यान के विवरण में श्रावकधर्म का भी विस्तार पूर्वक विवेचन करते हुए प्रत्याख्यान विधि, माहात्म्य आदि का वर्णन करते हुए आचार्य ने शिष्यहिता नामक आवश्यक टीका समाप्त की है 10
हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति का प्रकाशन ई. 1916-17 में आगमोदय समिति, बम्बई तथा वि. सं. 2038 में श्री भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई से दो भागों में प्रकाशन हुआ है।
88. आवश्यक निर्युक्ति टीका के अन्त में
89. जैन दर्शन (अनुवादक पं. बेचरदास) प्रस्तावना, पृ. 45-51
90. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ. 344-348