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आवश्यकसूत्र पर विपुल व्याख्या साहित्य प्राप्त होता है, जो मुख्य रूप से पांच भागों में है निर्युक्ति (आवश्यकनिर्युक्ति), 2. भाष्य (विशेषावश्यकभाष्य), 3. चूर्णि (आवश्यकचूर्णि), 4. वृत्ति (आवश्यकवृत्ति), 5. स्तबक (टब्बा ) तथा वर्तमान समय में हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं में भी आवश्यक पर विवेचन प्राप्त है। इन पांच विभागों में आवश्यकसूत्र पर जो भी व्याख्या साहित्य प्राप्त होता है, उसकी समीक्षा की गई है।
द्वितीय अध्याय (ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय) में ज्ञान के सम्बन्ध में सामान्य परिचय दिया गया है। ज्ञान और आत्मा का एक दूसरे की अपेक्षा से अस्तित्व सिद्ध है । यदि आत्मा से ज्ञान नष्ट हो जाए तो वह अजीववत् हो जाएगी एवं ज्ञान भी बिना आत्मा के नहीं रह सकता है। अतः ज्ञान आत्मा से कभी अलग नहीं होता है। बल्कि ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। किसी भी वस्तु को जानना ज्ञान कहलाता है। ज्ञान स्व-पर का प्रकाशक होता है। ज्ञान से जिसे जाना जाता है, वह ज्ञान का ज्ञेय कहलाता है। ज्ञान के पांच प्रकार हैं, यथा 1. आभिनिबोधिकज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4 मनः पर्यवज्ञान, 5. केवलज्ञान । तीन अज्ञान हैं - 1. मति अज्ञान, 2. श्रुत अज्ञान और विभंग ज्ञान। दर्शन के चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन ये चार भेद होते हैं । दार्शनिक परम्परा के आचार्यों ने मति आदि पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में विभाजित किया है, जिसमें प्रथम दो ज्ञानों का परोक्ष और शेष तीन ज्ञानों का प्रत्यक्ष में ग्रहण किया है। स्वामी, काल, विषय आदि के आधार से है, मति आदि पांच ज्ञानों का क्रम रखा गया है। ज्ञान के मुख्य रूप से तीन साधन होते हैं - 1. इन्द्रिय, 2. मन और 3. आत्मा । इसमें से प्रथम दो परोक्ष ज्ञान के तथा आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञान का मुख्य रूप से साधन होती है। इनका विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसके बाद श्रुतज्ञान कैसे ग्रहण करना चाहिए, इसके ग्रहण की विधि क्या है, श्रुतज्ञान को ग्रहण करने वाली की योग्यता क्या है ? इत्यादि का विस्तार से उल्लेख किया गया है।
तृतीय अध्याय (विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान) में मतिज्ञान का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। मति और श्रुतज्ञान में भिन्नता को जिनभद्रगणि ने सात प्रकार से सिद्ध करते हुए इनका विस्तार से उल्लेख किया है। सामान्य रूप से मतिज्ञान के 28 भेद हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में प्राप्त मतान्तर का उल्लेख करते हुए उसका निराकरण किया गया है। साथ ही अन्य ग्रंथों के आधार से मतिज्ञान के 2 से 384 तक के भेदों का उल्लेख किया गया है। श्रुतनिश्रित (अवग्रहादि चार) एवं अश्रुतनिश्रित ( औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां) मतिज्ञान का वर्णन करते हुए जिनभद्रगणि ने स्पष्ट किया है कि श्रुत निश्रित में श्रुतस्पर्श की बहुलता होती है, जबकि अश्रुतनिश्रित में श्रुत का स्पर्श अल्प होता है। श्रुत का अल्प और बहुत्व स्पर्श ही दोनों में भेद का व्यावर्तक लक्षण है । प्रस्तुत अध्याय में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करते हुए इनके सम्बन्ध में प्राप्त मतान्तरों का उल्लेख किया गया है। बहु आदि भेदों का उल्लेख करते हुए इनके लिए आचार्यों द्वारा प्रयुक्त अन्य शब्दों का भी उल्लेख किया गया है । बहु- अल्प, बहुविध आदि 12 भेदों को अवग्रह, ईहा आदि पर घटित किया गया है । द्रव्यादि की अपेक्षा मतिज्ञान के विषय के स्वरूप का वर्णन किया गया है। सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन नौ द्वारों के माध्यम से मतिज्ञान का वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अध्याय (विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान) में श्रुतज्ञान का विशिष्ट निरूपण है। श्रोत्रेन्द्रिय से जो ज्ञान सम्बन्धित हो, उसे सामान्यतः श्रुतज्ञान कहा गया है। श्रुतज्ञान के निमित्त भूत शब्द में