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सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान
[465] द्विसमय सिद्ध यावत् अनन्त समय सिद्ध तक भेद किये गए हैं। ये पर्यायों की अपेक्षा भिन्न होते हुए भी शुद्धता की अपेक्षा से तो सभी एक समान हैं।
प्रश्न - भवस्थकेवलज्ञान के चरम और अचरम भेद किये गये हैं, लेकिन सिद्ध केवलज्ञान में ये भेद क्यों नहीं किये गये? उत्तर - संसारी अवस्था में प्राप्त केवलज्ञान, सिद्ध दशा में भी विद्यमान रहता है चाहे सिद्धत्व का प्रथम समय हो, चाहे दूसरे, तीसरे आदि समय हों। सिद्धत्व दशा का कभी अन्त नहीं आता। अतएव उसमें 'चरम और अचरम' ये भेद नहीं होतो हैं, क्योंकि सिद्ध अचरम ही होते हैं।
सिद्धप्राभृत में तत्वार्थसूत्र के क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह में से लिंग के दो प्रकार (लिंग और वेद)करके तेरह तथा उत्कृष्ट और अनुसमय ये दो प्रकार नये जोड़कर कुल पन्द्रह प्रकार (क्षेत्र, काल, गति, वेद, तीर्थ, लिंग, चारित्र, बुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, उत्कृष्ट, अन्तर, अनुसमय, संख्या और अल्पबहुत्व) किये हैं। सिद्धप्राभृत में अनन्तर और परम्पर सिद्धों की विचारणा करते हुए सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण,
क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व, इस प्रकार इन आठ भेदों पर उपर्युक्त पन्द्रह द्वारों को घटित करते हुए सिद्धप्राभृत में वर्णन किया गया है। सिद्धप्राभृत में जो वर्णन किया गया है, उसका उल्लेख मलयगिरि की नंदीवृत्ति में प्राप्त होता है। 43
भगवतीसूत्र (14.10.1) में भवस्थ-केवली और सिद्धों की तुलना की गई है। केवली बोलते हैं और सिद्ध नही बोलते हैं। इसका क्या कारण है, भवस्थ-केवली उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषकार-पराक्रम सहित होते हैं, जबकि सिद्ध इन से रहित होते हैं। इसी प्रकार केवली अपनी आंखें खोलते हैं और बंद करते हैं, शरीर को संकुचित करते हैं, फैलाते हैं, खडे रहते, निवास करते हैं। लेकिन सिद्ध इनमें से एक भी क्रिया नहीं करते हैं।44 केवली और सिद्ध दोनों केवली है, इसलिए केवली का अर्थ भवस्थ केवली और सिद्ध का अर्थ अभवस्थ केवली किया जाता है।
__ चार्ट में अनन्तर और परम्पर के प्रभेदों को छोडकर शेष के प्रभेद का नंदीसूत्र में वर्णन है। नंदीसूत्र में अनन्तर के तीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह प्रभेद हैं और परम्पर के द्विसमय सिद्ध आदि अनेक भेद हैं। उपर्युक्त सभी प्रभेद केवलज्ञान के नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञान में तरतम भाव नहीं होता है। इसलिए यह प्रभेद केवलज्ञान के स्वामी अर्थात् केवली के है। षट्खण्डागम और तत्त्वार्थ सूत्र में केवली की विचारणा में केवलज्ञान के प्रभेदों का उल्लेख नहीं है।
केवलज्ञान
भवस्थ
सिंद्ध
सयोगी
अयोगी
अनन्तर
परम्पर
प्रथम
अनेकान्तर
अनेक
एक परम्पर
अप्रथम एकान्तर (अचरम)
समय
परम्पर
प्रथम अप्रथम (चरम) (अचरम)
समय समय 143. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 113-126
(चरम) समय
144. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र, श. 14, उ. 10 पृ. 429-430