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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय [23] उसके प्रयोजन पर प्रकाश डाला गया है। उसके बाद सामायिक पाठ 'करेमि भंते' की व्याख्या करके छह प्रकार के करण का विस्तृत निरूपण किया गया है। चतुर्विंशतिस्तव अध्ययन के वर्णन में स्तव, लोक, उद्योत, धर्म-तीर्थंकर आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है तथा तीर्थंकरों के स्वरूप का वर्णन किया गया है। तृतीय वन्दना अध्ययन में वंदन के योग्य श्रमण के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म का दृष्टान्त देकर समझाया गया है। आजीवक, तापस, परिव्राजक, तच्चणिय और बोटिक इन पांच अवन्द्य को वन्दन करने का निषेध किया गया है। ___ चतुर्थ अध्ययन में प्रतिक्रमण की परिभाषा प्रतिक्रमक, प्रतिक्रमण और प्रतिक्रान्तव्य इन तीन दृष्टियों से की गई है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि और आलोचना पर विवेचना करते हुए उदाहरण भी प्रस्तुत किये गए हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक अतिचार, ईर्यापथिकी विराधना, प्रकाम शय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि में लगने वाले अतिचार, चार विकथा, चार ध्यान, पांच क्रिया, पांचकाम गुण, पांच महाव्रत, पांच समिति आदि का प्रतिपादन किया गया है। शिक्षा के ग्रहण और आसेवन ये दो भेद किए गए हैं। अभयकुमार का विस्तार से जीवनपरिचय प्राप्त होता है। साथ ही सम्राट् श्रेणिक, चेलना, कोणिक, चेटक, उदायी, महापद्मनंद, शकडाल, वररुचि, स्थूलभद्र आदि ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र भी दिये गये हैं। व्रत की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा है - प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करना श्रेयस्कर है, किन्तु व्रत का भंग करना अनुचित है। विशुद्ध कार्य करते हुए मरना श्रेष्ठ है, किन्तु शील से स्खलित होकर जीवित रहना अनुचित है। पंचम अध्ययन में कायोत्सर्ग का वर्णन है। कायोत्सर्ग एक प्रकार से आध्यात्मिक व्रणचिकित्सा है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग ये दो पद हैं। कायोत्सर्ग के काय शब्द का नाम, स्थापना आदि बारह प्रकार के निक्षेपों से वर्णन किया गया है और उत्सर्ग का छह निक्षेपों से। कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग ये दो भेद हैं। गमन आदि में जो दोष लगा हो उसके पाप से निवृत्त होने के लिये चेष्टाकायोत्सर्ग किया जाता है। हूणादि से पराजित होकर जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह अभिभवकायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग के प्रशस्त एवं अप्रशस्त ये दो भेद हैं और फिर उच्छ्रित आदि नौ भेद हैं। श्रुत एवं सिद्ध की स्तुति पर प्रकाश डाला गया है। अन्त में कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि की भी चर्चा की गई है। छठे अध्ययन में प्रत्याख्यान का विवेचन है। इसमें सम्यक्त्व के अतिचार, श्रावक के बाहर व्रतों के अतिचार, दस प्रत्याख्यान, छह प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण, आगार आदि पर अनेक दृष्टान्तों के साथ विवेचन किया गया है। इस प्रकार आवश्यकचूर्णि जिनदासगणि महत्तर की एक महनीय कृति है। आवश्यक नियुक्ति में आये हुए सभी विषयों का चूर्णि में विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक, महापुरुषों के जीवन उटंकित किये गये हैं, जिनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। आवश्यकचूर्णि ई. 1928-29 में श्री ऋषभदेव केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम द्वरा दो भागों में प्रकाशित हुई है। 85. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भाग-3, पृ० 274-282
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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