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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
मनःपर्यवज्ञान का काल
नंदीसूत्रकार, जिनभद्रगणि और नंदी के टीकाकार हरिभद्र, मलयगिरि आदि श्वेताम्बर परम्परावादी आचार्य मन:पर्यवज्ञान का उत्कृष्ट काल भूत, भविष्यकालीन पल्योपम के असंख्यभाग जितना मानते हैं। षट्खण्डागमकार पुष्पदत्त भूतबलि और सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद आदि दिगम्बर परम्परावादी आचार्य मनःपर्यव का उत्कृष्ट काल असंख्यात भवों जितना स्वीकार करते हैं।192 दिगम्बर परम्परा में काल की विशेष स्पष्टता की गई है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में बताया गया-काल लगभग समान है, लेकिन कथन शैली भिन्न-भिन्न है।
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मन:पर्यवज्ञानी मनोद्रव्य की भूत और भविष्यकाल संबंधी पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी पर्यायों को जानता है।93 मनःपर्यवज्ञानी मन का साक्षात्कार करता है, ऐसा एकांत रूप से मानना उचित नहीं है। वस्तुतः मनःपर्यवज्ञानी को मन की पर्यायों का ही साक्षात्कार होता है। यहां उत्कृष्ट काल का तात्पर्य यह है कि जिन मनोद्रव्यों को मन:पर्यवज्ञानी ने ग्रहण किया है, वे मनोद्रव्य रूप से ही भूतकाल एवं भविष्यतकाल में रहने वाले हैं, तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक की उनकी भूत पर्याय एवं पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक की उनकी भविष्यत् पर्याय की जानने की मनःपर्यवज्ञानी की उत्कृष्ट क्षमता है।
___ भगवती सूत्र (शतक 8 उ. 2)और नंदीसूत्र में कथन है कि - ऋजुमति जघन्य से पल्योपम के असंख्येय भाग भूत कालीन और भविष्य कालीन मन:पर्यायों को जानते-देखते हैं और उत्कृष्ट से भी पल्योपम के असंख्येय भाग भूत और भविष्य कालीन मनःपर्यायों को जानते-देखते हैं। उसी काल को विपुलमति अधिकता से, विपुलता से, विशुद्धता से और वितिमिरता से जानते देखते हैं। 94 ।
जघन्य ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान बीते हुए पल्योपम के असंख्येय भाग में द्रव्यमन की कैसी पर्यायें रहीं और बीतने वाले पल्योपम के असंख्येय भाग में द्रव्यमन की कैसी पर्यायें रहेंगी-यह प्रत्यक्ष जानते हैं और उस पर अनुमान लगा कर बीते हुए पल्योपम के असंख्येय भाग में उक्त क्षेत्र में किसी संज्ञी तिर्यंच, मनुष्य और देव के कैसे मनोभाव रहे और बीतने वाले पल्योपम के असंख्येय भाग में कैसे मनोभाव रहेंगे, यह परोक्ष देखते हैं।
उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी भी इतने ही काल के भूत और भविष्य के मनोभावों को जानते हैं। परन्तु जघन्य ऋजुमति मनःपर्यायज्ञानी जिस पल्योपम के असंख्यातवें भाग को जानते-देखते हैं, वह बहुत छोटा समझना चाहिए। संभव है वह आवलिका का असंख्यातवां भाग ही हो, क्योंकि क्षेत्र से अंगुल का असंख्यातवां भाग जानते हैं' ऐसा कहा है तथा उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान वाले जिस पल्योपम के असंख्यातवें भाग को जानते हैं, वह बहुत बड़ा समझना चाहिए, क्योंकि उसमें असंख्यात वर्ष होते हैं। जिन मन:पर्यवज्ञानियों को मध्यम ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान है, वे जघन्य ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान की अपेक्षा कोई असंख्यातवें भाग अधिक काल, कोई संख्यातवें भाग अधिक 191. युवाचार्यमधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 49, विशेषावश्याकभाष्य, गाथा 813 192. उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि। षट्खण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.68, पृ. 342 , पु. 9 सू. 4.1.11, पृ. 69 |
उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति। - सर्वार्थसिद्धि 1.23, पृ. 92, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.10, पृ. 58 193. भूतऽतीत भविष्यति चाऽनायते पल्योपमासंख्येयभागरूपे काले ये तेषां मनोद्रव्याणां। -विशेषा०भाष्य, गाथा 813, पृ. 332 194. कालओ णं उज्जुमई जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखिज्जयभागं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखिजयभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ।
- पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 83