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[426] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
मन:पर्यवज्ञान की स्थिति - संयत में मन:पर्यवज्ञान जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक अवस्थित रहता है। जब अप्रमत्त अवस्था में वर्तमान किसी संयत को मन:पर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है और अप्रमत्त संयत अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाती है तब वह उसमें एक समय तक ही मन:पर्यवज्ञानी रहता है। उत्कृष्ट देशोन पूर्व कोटि तक अवस्थिति का कारण यह है कि इससे अधिक संयत का जीवनकाल ही नहीं होता है और संयम के अभाव में मन:पर्यवज्ञान भी नहीं रह सकता है। 178 मनःपर्यवज्ञान का द्रव्यादि की अपेक्षा वर्णन
विशेषावश्यकभाष्य और नंदीसूत्र आदि में भी मनःपर्यवज्ञान संपेक्ष में चार प्रकार का बताया है - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इसी प्रकार भगवती सूत्र (शतक 8 उद्देशक 2) में भी वर्णन है। मन:पर्यवज्ञान के पूर्व ऋजुमति और विपुलमति ये जो दो प्रकार बताएं हैं, उनका ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से वर्णन किया जा रहा है। मनःपर्यवज्ञान का द्रव्य
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मनःपर्यव का द्रव्य इस प्रकार है - मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को काययोग से ग्रहण करके मनोयोग से मन के रूप में परिणमन किये हुए मनोद्रव्य के पुद्गल को मन:पर्यवज्ञानी जानता है।180
भगवती सूत्र (शतक 8 उद्देशक 2) और नंदीसूत्र की अपेक्षा - ऋजुमति अनन्त प्रदेशी, अनंत स्कन्ध जानते देखते हैं, उन्हीं को विपुलमति अभ्यधिकता से, विपुलता से, विशुद्धता से, वितिमिरता से जानते देखते हैं। 181 मनोवर्गणा के अनन्त प्रदेशी स्कन्धों से निर्मित संज्ञी जीवों की मनोगत पयार्यों को तथा उनके द्वारा चिन्तनीय द्रव्य या वस्तु को मनःपर्यवज्ञानी स्पष्ट रूप से जानता और देखता है। जघन्य ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी संज्ञी जीव के मनरूप में परिणत मनोवर्गणा के अनन्त प्रदेशी अनन्त स्कन्धों को जानता है। उत्कृष्ट ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी मनोवर्गणा के अनंत प्रदेशी अनन्त स्कन्ध ही जानते हैं, किन्तु जघन्य मनःपर्यायज्ञान से अनन्तगुणा अधिक होते हैं। मध्यम ऋजुमति मन:पर्यायज्ञानी जघन्य ऋजुमति की अपेक्षा से अधिक और उत्कृष्ट ऋजुमति की अपेक्षा कम मनोवर्गणा के स्कन्ध द्रव्य जानते हैं।
विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी ऋजुमति जितने स्कन्ध देखते हैं, उनकी अपेक्षा परिणाम में अधिकतर और विपुलतर स्कन्ध देखते हैं एवं स्पष्टता की अपेक्षा अधिक विशुद्धतर देखते हैं, वितिमिरतर अर्थात् भ्रान्ति रहित जानते और देखते हैं।
गोम्मटसार (जीवकांड) के अनुसार - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर जीव के द्वारा चिन्तित पुद्गल द्रव्य और उससे सम्बद्ध जीवद्रव्य को जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी जानते हैं। द्रव्य की अपेक्षा से ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी औदारिक शरीर के निजीर्ण समय प्रबद्ध जघन्य द्रव्य को जानते हैं और उत्कृष्ट द्रव्य के रूप में चक्षु इन्द्रिय के निजीर्ण द्रव्य को जानते हैं। विपुलमति मनोद्रव्य वर्गणा के विकल्पों के अनन्तवें भागरूप ध्रुवहार से 178. युचावाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र भाग 2, पद 18, पृ. 356 179. तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा - १. दव्वओ, २. खित्तओ, ३. कालओ, ४. भावओ। 180. नरलोके तिर्यग्लोके मन्यमानानि संज्ञिभिजीर्वैः काययोगेन गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानीत्यर्थः । तदयं द्रव्यतो
विषय उक्तः। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 814 की टीका, पृ. 332 181. तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, तं चैव विउलमई अब्भहियंतराए विउलतराए विसुद्धतराए
वितिमिरतराए जाणइ पासइ। -पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 81