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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
यहाँ पर जो ऋजुमति को सामान्य अर्थ को ग्रहण करने वाला और विपुलमति को विशेषग्रहण करने वाला बताया है। जब ऋजुमति सामान्यग्राही है तब तो वह दर्शन रूप ही हुआ, क्योंकि सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन होता है। तो फिर ऋजुमति को ज्ञान क्यों कहा इस प्रश्न का समाधान इसी अध्याय में पृ. 438 पर किया गया है। दिगम्बर मान्यता में ऋजुमति-विपुलमति मनःपर्यवज्ञान का स्वरूप
वीरसेनाचार्य कथनानुसार - 1. दूसरे के मन में चिन्तित अर्थ को उपचार से मति कहा जाता है। ऋजु का अर्थ वक्रता रहित है। ऋजु है मति जिसकी, वह ऋजुमति कहा जाता है।06
2. ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर विचारे गये और सरलरूप से ही कहे गये अर्थ को जानने वाला ज्ञान ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान है।107
गोम्मटसार के अनुसार - वह मनःपर्यय सामान्य से एक होने पर भी भेद-विवक्षा से ऋजुमति मन:पर्यय और विपुलमति मनःपर्यय, इस तरह दो प्रकार का है। सरल काय, वचन और मन के द्वारा किया गया जो अर्थ दूसरे के मन में स्थित है, उसको जानने से निष्पन्न हुई मति जिसकी है, वह ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान है। सरल अथवा कुटिल काय-वचन-मन के द्वारा चिन्तित जो अर्थ दूसरे के मन में स्थित है, उसको जानने से निष्पन्न या अनिष्पन्न मति जिसकी है, वह विपुलमति मन:पर्यवज्ञान है।08
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सम्पूर्ण जैन परम्परा में इन दो भेदों को स्वीकार करने के विषय में कोई मतभेद नहीं है। इन भेदों में मति शब्द समान है तथा ऋजुत्व और विपुलत्व व्यावर्तक शब्द है।
दोनों परम्परा के जैनाचार्यों ने ऋजुमति-विपुलमति शब्दों को ज्ञानपरक, ज्ञातापरक और ज्ञेयपरक अर्थ के संदर्भ में समझाया है।
1. ज्ञानपरक अर्थ में ऋज्वी मति विशेषावश्यकभाष्या, हरिभद्रीय नंदीवृत्ति और मलयगिरि नंदीवृत्ति में यह अर्थ प्राप्त होते हैं।
2. ज्ञातापरक अर्थ में ऋज्वी मति:यस्य सर्वार्थसिद्धि12, हरिभद्रीय नंदीवृत्ति13, तत्त्वार्थराजवार्तिक'14 , धवलाटीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक'15, मलयगिरि नंदीवृत्ति16 में यह अर्थ प्राप्त होता है।
3. ज्ञेयपरक अर्थ में ऋज्वी मतिः ऐसी व्युत्पत्ति दी है। ज्ञेयपरक व्युत्पत्ति में मति का अर्थ संवेदन नहीं, लेकिन दूसरे के मनोगत अर्थ करने में आया है। इसी प्रकार विपुलमति शब्द के भी तीन प्रकार समझने चाहिए। 106. परकीयमतिगतोऽर्थ उपचारेण मतिः । ऋज्वी अवक्रा। ऋज्वीमर्तियस्य सः ऋजुमतिः ।
--धवलाटीका, पु. 9, सू. 4.1.10 पृ. 62-63 107. षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.62, पृ. 330 108. मणपज्जवं च दुविहं उजुविउलमदित्ति उजुमदी तिविहा। - गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 439, पृ. 665 109. ऋज्वी प्रायोघटादिसामान्यमात्रग्राहिणी मति: ऋजुमतिः। - विशेषावश्यक भाष्य बृहद्वृत्ति, गाथा 780, पृ. 332 110. हरिभद्रीय, नंदीवृत्ति. पृ. 40 111. ऋज्वी सामान्यग्राहिणी ऋजुमतिः - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 108 112. ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमतिः - सर्वार्थसिद्धि 1.23 पृ. 91
113. हरिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 40 114. ऋज्वी मर्तियस्य सोऽयमृजुमति -तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.1 पृ. 58
115. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.23.1 116. ऋज्वी सामान्यग्राहिणीमतिरस्य स ऋजुमतिः - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ.109 117. धवलाटीका, भाग 9, सू. 4.1.10 पृ. 62