________________ [412] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ऋद्धि प्राप्त। इनमें पहली कोटि के मुनिवर को प्रायः विपुलमति मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और ऋजुमति भी, किन्तु दूसरी कोटि के संयत को प्राय: ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान होता है और किसी को विपुलमति भी। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान वाला नियम से अप्रतिपाती होता है, किन्तु ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान के लिए विकल्प है। क्योंकि सर्वजीवाभिगम की आठवीं प्रतिपत्ति में "मन:पर्यवज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन प्रमाण है" यदि किसी ऋद्धि प्राप्त मुनिवर के जीवन में मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होकर लुप्त होने का प्रसंग आता है, तो वही ज्ञान पुनः अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न हो सकता है। इससे सिद्ध होता है कि मन:पर्यव ज्ञान के उत्पन्न और लुप्त होने का प्रसंग एक ही भव में एक बार भी आ सकता है और अनेक बार भी। यह कथन ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान के विषय में समझना चाहिए, विपुलमति के प्रसंग में नहीं। उपर्युक्त नौ शर्तों को द्रव्यादि चार भागों में समाविष्ट कर सकते हैं। जैसे कि मनुष्य, गर्भज और पर्याप्तक ये तीन द्रव्य में, कर्मभूमिज यह क्षेत्र में, संख्यातवर्षायुष्क यह काल में और सम्यग्दृष्टि, संयत, अप्रमत्त, ऋद्धिप्राप्त ये चार भाव में अन्तर्भूत हो जाते हैं। इस प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सामग्री पूर्णतया प्राप्त होती है तभी मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, जिससे ही मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि में भी नंदीसूत्र के समान ही मनःपर्यवज्ञान के स्वामी का वर्णन है, इसमें भी नौ शर्तों का उल्लेख प्राप्त होता है।" गोम्मटसार में भी इसके स्वामी का वर्णन उपलब्ध होता है - मणपज्जवं तं णाणं सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढीणं। एगादिजुदेसु हवे वड्ढंतविसिट्ठचरणेसु।। अर्थात् प्रमत्तसंयत से क्षीणकषाय पर्यन्त सात गुणस्थानों में, बुद्धि-तप-विक्रिया-औषध-रसबल और अक्षीण नामक सात ऋद्धियों में से एक-दो-तीन आदि ऋद्धियों के धारी तथा जिनका विशिष्ट चारित्र वर्धमान होता है, उन महामुनियों में ही मन:पर्यवज्ञान होता है। स्त्री को मनःपर्यवज्ञान 'स्त्री (साध्वी) को मन:पर्यवज्ञान होता है या नहीं,' इस विषय में मतभेद है। ग्रन्थकारों का अभिप्राय है कि स्त्री-लिंगी या स्त्रीवेदी को मन:पर्यवज्ञान नहीं होता। परन्तु श्री भगवतीसूत्र श. 8 उ. 2 के अनुसार - हे भगवन्! वेदयुक्त जीव ज्ञानी है या अज्ञानी? हे गौतम ! इन्द्रिययुक्त जीवों के समान ही स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक और नपुंसकवेदक हैं। अवेदी तो अकषायी के समान हैं। उपर्युक्त उत्तर में सइन्द्रिय जीवों से सवेदी जीवों की और स्पष्टतया स्त्री आदि तीनों वेद वालों की समानता बतलाई है। इसमें स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं बता कर समानता निरूपित की है। सइंद्रिय प्ररूपणा में स्पष्ट उल्लेख है कि - भगवन् ! सइन्द्रिय जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? इसके उत्तर में कहा गया है कि चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।०० उपर्युक्त वर्णन में स्त्रीवेद में चार ज्ञान होने का कथन है। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री (साध्वी) को भी मन:पर्यवज्ञान हो सकता है। 94. आत्मारामजी महाराज, नंदीसूत्र, पृ. 112 95. युवाचार्य मधुकरमुनि, जीवाभिगमसूत्र भाग 2, गाथा 254 पृ. 204 96. आत्मारामजी महाराज, नंदीसूत्र, पृ. 114 97. तत्त्वार्थराजवार्तिक, सूत्र 1.25.2, पृ. 59 98. गोम्मटसार जीवकांड, गाथा 445, पृ. 668 99. सवेयगा णं भंते ! जीवा किं णाणी०? गोयमा ! जहा सइंदिया। एवं इत्थिवेयगा वि एवं पुरसिवेयगा वि एवं नपुंसगवेयगा वि। अवेयगा जहा अकसाई। 100. इंदिय-लद्धियाणं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी। गोयमा! चत्तारि णाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए।