________________ [400] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन गमन, ज्ञान, वेदन होता है। परि उपसर्ग सर्वतोभाव अर्थ में प्रयोग हुआ है। 'अव' धातु गति आदि अर्थ में प्रयुक्त होती है। इसलिए परि+अवन का अर्थ हुआ सम्पूर्ण रूप से जानना। मन में होने वाला अथवा मन के पर्यव मन:पर्यव है अर्थात् सर्वथा मनोद्रव्य का परिच्छेद मनःपर्यव है। जो मनोद्रव्य को जानता है, वह मन:पर्यवज्ञान है। जिनदासगणि और मलयगिरि ने भी ऐसी ही व्युत्पत्ति मन:पर्यव ज्ञान के लिए दी है। 2. मनःपर्यय - 'अय वय मय' इत्यादिदण्डकधातुः अयनं गमनं वेदनमित्ययः परिः सर्वतोभावे, पर्ययनं सर्वतः परिच्छेदनं पर्ययः। मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य सम्बन्धी पर्ययो मन:पर्ययः, स चासौ ज्ञानं मन:पर्ययज्ञानम्। अर्थात् पर्ययनम् में अय, वय, मय आदि दण्डक धातुपाठ में वर्णित 'अय' धातु से अयन (अय) शब्द बनता है। यह भी गमन, ज्ञान, वेदन आदि अर्थ में प्रयुक्त होता है। 'परि' उपसर्ग यहाँ भी सम्पूर्ण अर्थ में है। ग्राह्य मन में या मन की उत्पन्न होने वाली पर्यय मन:पर्यय कहलाती है। उमास्वाति, जिनदासगणि और मलयगिरि ने भी ऐसी ही व्युत्पत्ति मन:पर्यव ज्ञान के लिए दी है। अथवा मन: प्रतीत्य प्रति सन्धाय वा ज्ञानम् अथवा परि समन्तात् अयः विशेषः पर्ययः मनसः पर्ययः मन:पर्यय. मनःपर्ययस्य ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानम्। अर्थात् 'पर्यय' में परि शब्द का अर्थ सब ओर और अय शब्द का अर्थ विशेष है, मन का पर्यय मनःपर्यय और मनःपर्यय का ज्ञान मन:पर्ययज्ञान / विद्यानन्द के अनुसार मनसः पर्यवणं यस्मात्तद्वा येन परीयते। 3. मनःपर्याय - 'इण् गतौ' अयनं, आय: लाभः, प्राप्तिरिति पर्यायाः परिस्तथैव, समन्तादाय: पर्यायः। मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य सन्बन्धी पर्यायो मनःपर्यायः, स चासौ ज्ञानं मन:पर्यायज्ञानम्। अर्थात् 'इण् गतौ' गति अर्थक धातु से आय शब्द बनता है। जैसे परि+आय-पर्याय बनेगा। पर्याय-अयन, लाभ प्राप्ति अर्थ में है, अर्थात् सम्पूर्ण रूप से होने वाली आय पर्याय कहलाती है। इस प्रकार मन में होने वाली पर्याय अथवा मन की पर्याय ज्ञान रूप होने से मन:पर्याय कहलाती है। जिनदासगणि और मलयगिरि ने भी ऐसी ही व्युत्पत्ति मन:पर्यव ज्ञान के लिए दी है। उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के अनुसार मन:पर्यवज्ञान के वाचक तीनों शब्दों के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। इनका समाहार मलधारी हेमचन्द्र ने इस प्रकार किया है। उस ग्राह्य मन के सम्बन्धी या मन में होने वाले बाह्य वस्तु के चिंतन रूप जो पर्याय, पर्यव या पर्यय हैं, उनका या उनमें इस व्यक्ति द्वारा यह और इस प्रकार सोचा गया है, इस रूप में जो ज्ञान है, वह मन:पर्यायज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अथवा मन:पर्ययज्ञान है। इसका तात्पर्य है कि मन:पर्यवज्ञानी जिस जीव के मन की पर्यायों को जानता है, वे पर्यायें उस जीव के मन में होने वाले चिन्तन गुण स्वरूप होती हैं। उन पर्यायों के आधार पर मन:पर्यायज्ञानी जानता है कि उस जीव के द्वारा ऐसा सोचा गया है। उपर्युक्त सभी 32. नंदीचूर्णि, पृ. 20-21, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 66 33. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 83 की टीका, पृ. 47 34. प्रशमरति, भाग 2, आचार्य भद्रगुप्त पृ. 58,59, नंदीचूर्णि, पृ. 20-21, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 66 35. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.4, पृ. 32 36. धवलाटीका भाग 13, पृ. 328 37. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.23.14, पृ. 246 38. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 83 की बृहद्वृत्ति, पृ. 47 39. नंदीचूर्णि, पृ. 20-21, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 66 40. तस्य मनसो ग्राह्यस्य सम्बन्धिनो बाह्यवस्तु-चिन्तनानुगुणा ये पर्यायाः पर्यवाः पर्ययास्तेषां तेषु वा 'इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम्' इत्येवंरूपं ज्ञानं मन:पर्यायज्ञानं, मन:पर्यवज्ञानं, मन:पर्ययज्ञानं।- विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 83 की टीका, पृ. 47