________________ [392] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन के विभंगज्ञान होता है। कुछ आचार्यों ने इस प्रसंग पर विभंग दर्शन को सिद्ध करने का प्रयास किया है, जिसका जिनभद्रगणि ने खण्डन किया है। देश द्वार में अवधिज्ञानी रूपी पदार्थों को देश से जानता है कि सर्व से जानता है, इसका उल्लेख किया गया है। ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति में ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम की समानता रहती है, फिर भी द्रव्य में सामान्य और विशेष की अपेक्षा से क्षयोपशम ज्ञान (साकार उपयोग) और दर्शन (अनाकार उपयोग) में होता है। क्षेत्र द्वार में संबद्ध और असंबद्ध अवधिक्षेत्र का वर्णन किया गया है। किसी अवधिज्ञानी का अवधिज्ञान प्रदीप में प्रभा की तरह संबद्ध होता है। वह ज्ञानी अपने अवस्थिति क्षेत्र से निरन्तर द्रष्टव्य वस्तु को जान लेता है। जिस प्रकार दूरी और अन्धकार के कारण प्रदीप की प्रभा विच्छिन्न हो जाती है, वैसे ही अवधिज्ञान अवधिज्ञानी में असंबद्ध होता है। असम्बद्ध में तो अपने पास वाला क्षेत्र नहीं देखता है। स्पर्धक अवधि में अपने पास वाला क्षेत्र देख सकता है। स्पर्धक अवधिज्ञानी का अर्थ बीच-बीच में क्षेत्र नहीं देखना है। गति द्वार में गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि बीस द्वारों के माध्यम से अवधिज्ञानी के अधिकारी आदि का मतिज्ञान के समान उल्लेख किया गया है। ऋद्धि द्वार में विशिष्ट क्षयोपशम से जीव को जिन लब्धिों की प्राप्ति होती है, उनका उल्लेख ग्रंथों में प्राप्त भिन्न लब्धियों का वर्णन किया गया है। कितनी लब्धियाँ भवी-अभवी पुरुष और स्त्री में होती हैं, इसका वर्णन किया गया है। उसके अलावा ऋद्धि के सम्बन्ध में विशिष्ट उल्लेख इस प्रकार है - अन्य मत की साधना में कितनी लब्धियाँ है - अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, संभिन्नश्रोता, चारण, पूर्वधर, गणधर, पुलाक, आहारक, केवली, ऋजुगति, विपुलमति, ये तेरह लब्धियाँ अन्य मत में सम्भव नहीं हैं। शेष आमोसहि, विप्पोसहि, खेलोसहि, जल्लोसहि, सव्वोसहि, अवधि, आसीविस, खीर, महु, सप्पि, आसव, कोट्ठबुद्धि, पदानुसारी, बीजबुद्धि, तेजोलेश्या, शीतलेश्या, वैक्रिय, अक्षीणमहानसिक, ये लब्धियाँ अन्यमतवालों को भी हो सकती है। अणुत्व, महत्त्व आदि ऋद्धियाँ (सिद्धियाँ) भी अन्य मत में हो सकती हैं। 28 लब्धियों में किस गुणस्थान में कितनी लब्धियाँ होती हैं - तीर्थंकर, केवली ये दो लब्धियां 13वें-14वें गुणस्थान में पायी जाती है। संभिन्नश्रोता, पूर्वधर, गणधर, विपुलमति, ऋजुमति ये पांच लब्धियाँ छठे से बाहरवें गुणस्थान तक पायी जाती हैं। श्रुतज्ञान के क्षयोपशमरूप होने से गणधरलब्धि में बारहवें गुणस्थान तक ही मानी गयी है। चारण-पुलाक और आहारक लब्धि छठे गुणस्थान में मानी जाती है। चारणलब्धि का प्रयोग प्रमादी करता है। पहुँचने के बाद अप्रमत्त भी हो सकता है। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव में प्रथम चार गुणस्थान पाये जाते हैं। अवधि लब्धि चौथे से बारहवें गुणस्थान तक पायी जाती है। सास्वादन में भी अवधि होती है। विभंग को भी इसी में समझा जाता है। इस दृष्टि से यह पहले से बारहवें गुणस्थान तक है। आशीविष, शीतल, उष्ण, तेजोलेश्या प्रथम छह गुणस्थानों तक समझी जाती है। बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि और पदानुसारिणी में प्रथम बारह गुणस्थान, क्षीर, मधु, घृत में प्रथम से तेरह गुणस्थान, शेष आमोसहि, विप्पोसहि,