________________ [390] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन वैमानिक को छोड़कर शेष देवताओं के अवधिज्ञान का क्षेत्र प्रमाण सामान्य से इस प्रकार है। आधा सागरोपम से कम आयुष्यवाला देव संख्यात योजन तक और उससे अधिक आयुष्य वाले देव असंख्यात योजन तक उत्कृष्ट क्षेत्र देखते हैं अर्थात् देवों के अवधिज्ञान के क्षेत्र का विषय उनकी स्थिति के अनुसार है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा मनुष्य गति में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम प्रकार का, तिर्यंच गति में जघन्य और मध्यम रूप दो प्रकार का तथा देव और नारकी में एक मध्यम प्रकार का ही अवधिज्ञान पाया जाता है। संस्थान द्वार में अवधिज्ञानी के ज्ञान का आकार-प्रकार कैसा होता है, इसका उल्लेख किया गया है। सभी जीवों के अवधिज्ञान का प्रकार भिन्न-भिन्न होता है। जैसे नारकी के अवधिज्ञान का संस्थान तप्र के प्रकार का, भवनपति में पल्लक के प्रकार का तथा वाणव्यंतर में पटह के प्रकार का होता है। इस तरह अनुत्तर विमान के देव तक के अवधिज्ञान का प्रकार बताया गया है। मनुष्य और तिर्यंच के अवधिज्ञान का संस्थान अनियत है। संस्थानों के वर्णन के साथ श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्पराओं में शरीरगत संस्थान के उल्लेख में जो मत भेद है, उसकी चर्चा की गई है। जो अवधिज्ञान एक स्थान से दूसरे स्थान पर कर्ता का नेत्र के समान अनुगमन करे वह आनुगामिक अवधिज्ञान होता है। यह दो प्रकार का होता है - अंतगत और मध्यगत। जो अवधिज्ञान आत्मप्रदेशों के किसी एक छोर में विशिष्ट क्षयोपशम होने पर उत्पन्न होता है, वह अवधिज्ञान अंतगत अवधिज्ञान है। अंतगत अवधिज्ञान कई दिशाओं को प्रकाशित कर सकता है। इसलिए इसके तीन भेद हैं - 1. पुरतः (आगे की दिशा को प्रकाशित करने वाला) 2. मार्गतः (पीछे की दिशा को प्रकाशित करने वाला) 3. पार्श्वत: (दाये-बायें किसी एक दिशा को प्रकाशित करने वाला)। इस प्रकार वह संख्यात असंख्यात योजन क्षेत्र को प्रकाशित करता है। इन भेदों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में नहीं है। मध्यगत अवधिज्ञान में जैसे कोई व्यक्ति प्रकाशमान दीपक आदि को अपने मस्तक पर रखता है तो उससे चारों ओर की वस्तु प्रकाशित होती है, वैसे ही जो अवधिज्ञानी सभी दिशाओं के रूपी पदार्थों को जानता है, वह मध्यगत अवधिज्ञान है। अंतगत और मध्यगत में मुख्य रूप से अन्तर है कि अंतगत अवधिज्ञान चारों दिशाओं में से किसी एक दिशा में संख्यात और असंख्यात योजन तक स्थित रूपी द्रव्यों को प्रकाशित करता है, जबकि मध्यगत अवधिज्ञानी सभी दिशाओं विदिशाओं में संख्यात और असंख्यात योजन तक स्थित रूपी द्रव्यों को प्रकाशित करता है। जो अवधिज्ञान ज्ञाता का अनुगमन नहीं करे, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान है। जिस प्रकार स्थिर दीपक आदि एक ही स्थान पर रहकर मर्यादित क्षेत्र में रूपी पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान होता है। यह अवधिज्ञान क्षेत्र से प्रतिबद्ध होता है। अनानुगामिक अवधिज्ञानी सम्बद्ध (लगातार) और असम्बद्ध (अन्तराल) रूप से रूपी पुद्गलों को जानता है। जिनभद्रगणि ने आनुगामिक और अनानुगामिक के मिश्र भेद का भी उल्लेख किया है। मनुष्य-तिर्यंच में आनुगामिक, अनानुगामिक और मिश्र तथा देव और नारकी में आनुगामिक अवधिज्ञान होता है। अवस्थित द्वार में अवधिज्ञान का क्षेत्र, उपयोग और लब्धि की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। अवस्थित का अर्थ है स्थिर रहना। अवस्थित के साथ अनवस्थित का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में प्राप्त नहीं होता है। अनवस्थित का उल्लेख षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त होता है।