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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
आवश्यकनियुक्ति के कर्ता : भद्रबाह
भद्रबाहु नामक अनेक आचार्य हुए हैं, यथा चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु, नैमित्तिक भद्रभाहु, आर्य भद्रगुप्त आदि। जन सामान्य में यही मान्यता प्रचलित है कि सभी नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में आचार्य भद्रबाहु प्रथम को पांचवां तथा अन्तिम श्रुतकेवली माना गया है, किन्तु दोनों परम्पराओं में उनके जीवन चरित्र के सम्बन्ध में मतभेद हैं, इसका जैन धर्म का मौलिक इतिहास में विस्तार से वर्णन है। दोनों परम्पराओं में विभिन्न ग्रंथों को देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि भद्रबाहु नाम के दो-तीन आचार्य हुए हैं। लेकिन समान नाम होने से उन घटनाओं का सम्बन्ध चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड दिया गया है। श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से एक चतुर्दश पूर्वधारी आचार्य भद्रबाहु नेपाल में महाप्राणायाम नामक योग की साधना करने गए थे, जो कि छेदसूत्रकार थे। दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे भद्रबाहु नेपाल नहीं जाकर दक्षिण में गए थे। देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने आवश्यक सूत्र की प्रस्तावना में लिखा है कि उपर्युक्त दोनों भद्रबाहु एक न होकर पृथक्-पृथक् होने चाहिए क्योंकि जो नेपाल गये थे वे दक्षिण में नहीं गये और जो दक्षिण में गये वे नेपाल में नहीं गये थे। लेकिन नियुक्तिकार भद्रबाहु इन दोनों से भिन्न एक तीसरे ही व्यक्ति थे। वास्तविक तथ्य क्या है यह आज भी शोध का विषय है। आवश्यक नियुक्ति के कर्ता के सम्बन्ध में सभी विद्वानों का एक मत नहीं है।
चतुर्दशपूर्वधराचार्य भद्रबाहु एवं उनका नियुक्ति कर्तृत्व - आचार्य भद्रबाहु का जन्म प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण परिवार में वीर नि. संवत् 94 में हुआ। 45वें वर्ष में अर्थात् वी. नि. 139 में आचार्य यशोभद्रस्वामी के पास संयम अंगीकार करके चौदहपूर्वो का ज्ञान करके वे श्रुतकेवली बन गये। वी. नि. 156 में वे संघ के संचालक बने और वी. नि. 170 में उनका स्वर्गवास हुआ। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार वी. नि. 163 में उनका स्वर्गवास हुआ है।
छेदसूत्र तथा नियुक्तियाँ एक ही भद्रबाहु की कृतियाँ हैं, इस मान्यता के समर्थन के लिए भी एकदो प्रमाण मिलते हैं जैसे आचार्य शीलांककृत आचारांग-टीका में लिखा है - 'नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान्।' इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध अथवा नौवीं शताब्दी का प्रारंभ है। आचारांग टीका में यही बताया गया है कि नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वविद् भद्रबाहुस्वामी हैं तथा विक्रम संवत् 12वीं सदी के विद्वान् मलधारी हेमचन्द्र ने भी चतुदर्शपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी को नियुक्ति का कर्त्ता माना है। प्रबन्धकोश के कर्ता राजशेखरसूरि तथा श्री जम्बूविजयजी का भी यही मत है। लेकिन इसके विपरीत अधिक सबल एवं तर्कपूर्ण प्रमाण दूसरी मान्यता के लिए मिलते हैं, जिसमें सबसे अधिक सटीक प्रमाण यही है कि नियुक्तिकार ने स्वयं को चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु से भिन्न बाताया है और स्वयं ने दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के प्रारंभ में ही छेदसूत्रकार चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु को नमस्कार किया है। "वंदामि भद्दबाहुँ, पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं। सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे।'62 अर्थात् दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति की प्रथम गाथा के 56. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग 2, पृ. 326-358 57. आवश्यक सूत्र, प्रस्तावना, पृ० 57
58. आचारांगटीका (आचारांगसूत्र सूत्रकृतांग सूत्रं च) पृ. 4 59. चतुदर्शशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिना एतद्व्याख्यानरूपा...नियुक्तिः कृता। -शिष्यहिता-बृहद्वृत्ति, प्रस्तावना, पृ. 1 60. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग 2, पृ. 334 61. द्वादशारंनयचक्रम् (श्री जम्बूविजयजी) प्रस्तावना पृ. 60 62. नियुक्तिपंचक खण्ड 3 (दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति) गाथा 1