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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन सामायिक सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार महामंत्र आता है। इसलिये नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल इन ग्यारह द्वारों के भेद-प्रभेदों के साथ अति विस्तृत रूप से नमस्कार महामंत्र पर चिंतन किया गया है जो साधक के लिए बहुत ही उपयोगी है।
पंचनमस्कार के बाद ही सामायिक ग्रहण की जाती है, क्योंकि पंचनमस्कार भी सामायिक का अंग है। सामायिक किस प्रकार करनी चाहिए, इसका करण, भय, अन्त (मदन्त), सामायिक, सर्व, अवद्य, योग, प्रत्याख्यान, यावज्जीवन और त्रिविध पदों की व्याख्या के साथ विवेचन किया गया है। सामायिक का कर्ता, कर्म और करण बताते हुए आत्मा को ही सामायिक का कर्ता, कर्म और करण स्वीकार किया गया है। संक्षेप में सामायिक का अर्थ है तीन करण और तीन योग से सावध क्रिया का त्याग। तीन करण (करना, कराना और अनुमोदन), तीन योग (मन, वचन और काया) से होने वाली सावध अर्थात् पापकारिणी क्रिया का जीवनपर्यन्त त्याग ही सामायिक का उद्देश्य है। सर्वविरति सामायिक में तीन करण और तीन योग से सावध प्रवृत्ति का त्याग होता है।
द्वितीय अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव है। इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह निक्षेपों की दृष्टि से प्रकाश डाला गया है। चौबीस तीर्थंकरों के नामों की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गई है। फिर उनकी विशेषताओं और गुणों पर का प्रकाश डाला गया है।
तृतीय अध्ययन वंदना है। चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म, ये वंदना के पर्यायवाची हैं। वंदना किसे करनी चाहिये? किसके द्वारा होनी चाहिए? कब होनी चाहिये? कितनी बार होनी चाहिये? कितनी बार सिर झुकना चाहिये? कितने आवश्यकों से शुद्धि होनी चाहिए? कितने दोषों से मुक्ति होनी चाहिए? वंदना किसलिये करनी चाहिए? आदि नौ बातों पर विचार किया गया है। वही श्रमण वन्दनीय है जिनका आचार उत्कृष्ट है और विचार निर्मल है।
चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण है। प्रमाद के कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि परस्थान में जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण है। इस पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है - 1. प्रतिक्रमण रूप क्रिया 2. प्रतिक्रमण का कर्ता (प्रतिक्रामक) 3. प्रतिक्रन्तव्य अर्थात् प्रतिकमितव्य अशुभयोगरूप कर्म। जीव पापकर्मयोग का प्रतिक्रामक है, इसलिए जो ध्यानप्रशस्त योग है उनका साधु को प्रतिक्रमण नहीं करना चाहिए। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा, शुद्धि - ये प्रतिक्रमण के पर्यायवाची हैं। प्रतिक्रमण के देवसिय, राइय (रात्रिक) इत्यादि पांच प्रकार से अनेक प्रकार होते हैं। उच्चार, मूत्र, कफ, नासिका मल, आभोग, अनाभोग, सहसाकार क्रियाओं के बाद प्रतिक्रमण आवश्यक है। प्रतिक्रन्तव्य मिथ्यात्व, असंयम (अव्रत), प्रमाद, कषाय
और अप्रशस्तयोग से प्रतिक्रमण पांच प्रकार का होता है। इसके पश्चात् आलोचना, निरपलाप, आपत्ति, दृढ़धर्मता आदि 32 योगों का संग्रह किया गया है और उन्हें समझाने के लिये महागिरि, स्थूलभद्र, धर्मघोष, सुरेन्द्रदत्त, वारत्तक, वैद्य धन्वन्तरि, करकण्डु, आर्य पुष्पभूति आदि के उदहारण भी दिये गये हैं। साथ ही स्वाध्याय-अस्वाध्याय के सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
पंचम अध्ययन कायोत्सर्ग है। आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक ये प्रायश्चित्त के दस भेद बताये गए हैं। कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग ये एकार्थवाची हैं। यहाँ कायोत्सर्ग का अर्थ व्रणचिकित्सा है। कुछ दोष आलोचना से ठीक होते हैं तो कुछ दोष प्रतिक्रमण से और कुछ दोष कायोत्सर्ग से ठीक होते हैं। कायोत्सर्ग से देह और बुद्धि की