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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
के तीन भेद - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि हैं। जिनमें देशावधि के वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती, प्रतिपाती ये आठ भेद होते हैं । परमावधि के हीयमान और प्रतिपाती को छोड़कर शेष छह भेद पाये जाते हैं। सर्वावधि के अवस्थित, अनुगामिक, अननुगामिक और अप्रतिपाती ये चार भेद होते हैं 5
अकलंक ने आगे वर्णन करते हुए कहा है कि परमावधिज्ञान, सर्वावधि से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से न्यून है इसलिए परमावधि भी वास्तव में देशावधि है ।" अकलंक ने षट्खण्डागम में वर्णित एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र, इन दो भेदों का उल्लेख नहीं किया है। विद्यानंद ने प्रतिपाती और अप्रतिपाती इन दो भेदों को तत्त्वार्थ सूत्र के छह भेदों में उल्लेखित किया है।” यशोविजय ने भी नंदीसूत्र के समान ही छह भेदों का उल्लेख किया है
इस प्रकार अवधिज्ञान के भेदों में विभिन्नमत थे, लेकिन अंत में नंदीसूत्र में वर्णित छह भेदों को ही मान्य किया गया है।
उपर्युक्त वर्णित सारे भेद गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के ही प्रतीत होते हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए आचार्य भद्रबाहु और जिनभद्रगणि ने क्षेत्र परिमाण, संस्थान, आनुगामिक, अनानुगामिक, अवस्थित और देश द्वार में कृत वर्णन को गुणप्रत्यय ( मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा) में रखा है। षट्खण्डागम में गुणप्रत्यय के बाद देशावधि आदि तेरह प्रकार बताए हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ये भेद गुणप्रत्यय के हैं। तत्त्वार्थसूत्र में ये छह भेद क्षायोपशमिक (गुणप्रत्यय) अवधिज्ञान के विशेष प्रकार है P9 आचार्य नेमिचन्द्र 100 और अमृतचन्द्र 11 का भी ऐसा ही मानना है।
नंदीसूत्र में क्षायोपशमिक (गुणप्रत्यय) का कथन करने के बाद ही अनुगामी आदि छह भेदों का कथन किया है। मलयगिरि ने एक ही सूत्र में गुणप्रत्यय के साथ इन छह भेदों का उल्लेख किया है। 102 इन आधारों से यह स्पष्ट होता है कि यह भेद गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के ही हैं। लेकिन वीरसेनाचार्य का अभिमत है कि यह अवधिज्ञान के सामान्य रूप से भेद हैं क्योंकि अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी आदि भेद भवप्रत्यय ज्ञान में भी घटित होते हैं। 103
उपर्युक्त वर्णन का सारांश यह है कि आवश्यकनिर्युक्ति और षट्खण्डागम में उपर्युक्त भेदों का वर्णन अवधिज्ञान के सामान्य भेदों के रूप में था । लेकिन नंदीसूत्र, और तत्त्वार्थसूत्र आदि के काल में इन भेदों को स्पष्ट रूप से गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के भेद के रूप में स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि
95. पुनरपरेऽवधेस्त्रयोभेदाः देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चति । वर्धमानो: हीयमान अवस्थितः अनवस्थितः अनुगामी अननुगामी अप्रतिपाती प्रतिपातीत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधेर्भवति । हीयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षड्भेदा भवति परमावधेः । अवस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपातीत्येते चत्वारो भेदाः सर्वाविधेः । - तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.22.5 पृ. 56
96. सर्वशब्दस्स साकल्यवाचित्वाद्द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वावधेरंतः पातिपरमावधिरतः परमावधिरति देशावधिरेवेति द्विविध एवावधि: सर्वावधिर्देशावधिश्च । तत्त्वार्थाजवार्तिक 1.22.5 पृ.57
97. अनुगाम्यननुगामी वर्द्धमानो हीयमानोऽवस्थितोऽनवस्थित इति षडविकल्पोऽवधिः संप्रतिपाताप्रतिपातयोस्त्रैवान्तर्भावात् ।
- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.22 पृ. 245 99. क्षयोपशमिनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणां । तत्त्वार्थ सूत्र 1.22 101. तत्त्वार्थसार, गाथा 25-27, पृ. 12
समुप्पज्जइ, तं समासओ छव्विहं पन्नतं, तंजहा - आणुगामिअं अणाणुगामिअं
98. जैनतर्कभाषा पृ. 24
100. गोम्मटसार ( जीवकांड) भाग 2, पृ. 619
102. अहवा गुण पडिवन्नस्स अणगारस्स ओहिणाणं
वडूमाणयं हीयमाणयं पडिवाइयं अप्पडिवाइयं मलयगिरि नंदीवृत्ति, सूत्र 9, पृ. 81
103. अनंतरत्तादो गुणपच्चइ य ओहिणाणमणेयविहं ति किण्ण वुच्चदे ? ण, भवपच्चइयओहिणाणे वि अवट्ठिद - अणवदि
अणुगामि- अणणुगामिवियप्पुवलंमादो। षट्खण्डागम (धवला) पु. 13, सूत्र 5-5-56, पृ. 293