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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
जानता है वही केवली जानता देखता है। 86 इस प्रकार प्राचीन काल में अवधि ज्ञान के दो भेद मान्य हो सकते हैं - आघोऽवधि (सामान्य अवधिज्ञानी) और परमोवधिक ।
प्रज्ञापनासूत्र के तैंतीसवें अवधिपद में वर्णित सात द्वारों के आधार पर अवधिज्ञान के चौदह भेद प्राप्त होते हैं। 1. भवप्रत्यय, 2. गुणप्रत्यय, 3. आभ्यंतर 4. बाह्य 5. देशावधि 6. सर्वावधि 7. अनुगामी 8. अननुगामी 9. वर्द्धमान 10 हीयमान 11. प्रतिपाती 12. अप्रतिपाती 13. अवस्थित 14. अनवस्थित। 7 प्रज्ञापनासूत्र में अवधिज्ञान के भेदों को भिन्न द्वारों में कहने का संभवतया यह आशय हो सकता है कि सामान्य बुद्धि वाले शिष्यों को बोध देने के लिए यह आगमकारों की एक प्रकार की शैली हो सकती है।
नंदीसूत्र में अवधिज्ञान के छह भेद ही मिलते हैं - 1. आनुगामिक, 2. अनानुगामिक, 3. वर्धमान, 4. हीयमान, 5. प्रतिपाती और 6. अप्रतिपाती।
स्थानांगसूत्र में भवप्रत्यय एवं क्षायोपशमिक के साथ ही आनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अप्रतिपाती प्रकारों का उल्लेख मिलता है।
नंदीसूत्र में ‘“अहवा गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स ओहिणाणं समुपज्जा ....." यह मूल पाठ आया है। गुण का सम्बन्ध मूलगुण और उत्तर गुण से है । " पडिवण्णस्स अणगारस्स" यह शब्द अन्य का निषेधक नहीं है, किन्तु यहाँ जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेदों का वर्णन किया है, वह अनगार की अपेक्षा से ही है। क्योंकि अन्य का अवधिज्ञान अप्रतिपाति नहीं होता है अर्थात् अप्रतिपाति अवधिज्ञान अनगार को ही होता है।
प्रज्ञापना सूत्र में नंदीगत छह भेदों के अलावा अवस्थित और अनवस्थित का भी उल्लेख है, क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के अवधिपद ( 33वां पद) में 24 दण्डकों में प्राप्त अवधिज्ञान का वर्णन है । वहाँ देव, नारकी के आनुगामिक आदि अवधिज्ञान को अवस्थित, मनुष्य, तिर्यंच के आनुगामिक आदि अवधिज्ञान को अवस्थित, अनवस्थित दोनों प्रकार का बताया है। अतः वहाँ छह भेदों के साथ इन दो भेदों का भी उल्लेख किया गया है। जबकि नंदीसूत्र में 24 दण्डकों में पाये जाने वाले अवधिज्ञान का वर्णन नहीं है। इसलिये उसमें छह ही भेद किये गये हैं ।
2. आवश्यकनिर्युक्ति के अनुसार
आवश्यक नियुक्ति के अनुसार जिनभद्रगणि ने अवधिज्ञान के क्षेत्र एवं काल की अपेक्षा असंख्यात भेद और द्रव्य एवं भाव की अपेक्षा से अनंत भेद स्वीकार किये हैं। सभी भेदों को कहने में असमर्थता बताते हुए चौदह प्रकार के निक्षेप और ऋद्धि का वर्णन किया है। 88 इस अपेक्षा से अवधिज्ञान के चौदह भेद हैं- 1. अवधि, 2. क्षेत्रपरिमाण, 3. संस्थान, 4. आनुगामिक, 5. अवस्थित, 6. चल, 7. तीव्रमंद, 8. प्रतिपाति - उत्पाद, 9. ज्ञान, 10. दर्शन, 11. विभंग, 12. देश, 13. क्षेत्र और 14. गति 89
86. आहोहिए णं भंते! मणुस्से परमाणुपोग्गलं ? जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि जाव अणतपएसियं । केवली णं भंते! मणूसे परमाणुपोग्गलं! जहा परमाहोहिए तहा केवली वि जाव अणतपएसियं । - भगवतीसूत्र, शतक 18, उद्देशक 8, पृ. 734
87. तंजहा भवपच्चइया य खओवसमिया य । णेरइया णं भंते! कि ओहिस्स किं अंतो बाहि? णेरइयाणं भंते! कि दिसोही सव्वोही ।
णेरइया णं भंते! ओही किं आणुगामिए अणाणुगामिए वड्ढमाणए हायमाणए पडिवाई अपडिवाई अवट्टिए अणवट्टिए ? | - युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र पद 33, पृ. 183-196
88. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 25, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 568-569 89. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 27-28, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 577-578