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________________ प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय तीर्थंकर त्याग, वैराग्य, संयम-साधना की दृष्टि से महान् हैं। उनके गुणों का उत्कीर्तन करने से साधक के अन्तर्हृदय में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। यदि किसी कारणवश श्रद्धा शिथिल हो जाये तो उसका स्थिरीकरण होता है। तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करने से हृदय पवित्र होता है। 3. वन्दन - साधना के क्षेत्र में तीर्थंकर (देव) के पश्चात् दूसरा स्थान गुरु का आता है। अतः तीसरे आवश्यक में गुरु को नमस्कार किया गया है। जीवन में गुरु का अद्वितीय स्थान है क्योंकि प्रत्येक समय और प्रत्येक स्थान पर तीर्थंकरों का संयोग मिलना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर उपदिष्ट धर्म को बताने वाले, साधना की राह दिखाने वाले गुरु ही होते हैं। साधना क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए गुरु का मार्गदर्शन अत्यधिक आवश्यक है। अत: गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए तीसरे आवश्यक में गुरु को वंदन किया गया है। वंदन विनय का सूचक होता है। जैन आगमों में विनय को धर्म का मूल कहा है। वंदन करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय की प्राप्ति होती है। 4. प्रतिक्रमण - जैन परम्परा में प्रतिक्रमण एक विशिष्ट शब्द है। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है पुनः लौटना। हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर, अपनी स्वभाव-दशा से निकलकर विभाव-दशा में चले जाते हैं, अतः पुनः स्वभाव रूप सीमा में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है। जो पाप मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से करवाये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु, किये गये पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र में योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में 'अस्य प्रतिपूर्वस्य भावानऽन्तस्य प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, अयमर्थः - शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव क्रमणात् प्रतीपंक्रमणम्'37 अर्थात् शुभ योगों से अशुभ योगों में गये हुए स्वयं को पुनः शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण में 'प्रति' उपसर्ग है और 'क्रमु' घातु है। प्रति का तात्पर्य है -प्रतिकूल और क्रम का तात्पर्य है - पदनिक्षेप। जिन प्रवृत्तियों में साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम रूप पापस्थान में चला गया है, उसका पुनः अपनेआप में लौट आना प्रतिक्रमण है। प्रायः यह समझा जाता है कि प्रतिक्रमण अतीत काल में लगे दोषों की ही शुद्धि के लिए है, पर आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यनियुक्ति में बताया है कि प्रतिक्रमण केवल अतीत काल में लगे दोषों की ही शुद्धि नहीं करता अपितु वह वर्तमान और भविष्य के दोषों की भी शुद्धि करता है। अतीतकाल में लगे दोषों की शुद्धि तो प्रतिक्रमण में की ही जाती है, वर्तमान में भी साधक संवर साधना में लगा रहने से पापों से भी निवृत्त हो जाता है। साथ ही प्रतिक्रमण में वह प्रत्याख्यान ग्रहण करता है, जिसमें भावी दोषों से भी बच जाता है। भूतकाल के अशुभ योग से निवृत्ति, वर्तमान में शुभ योग में प्रवृत्ति और भविष्य में भी शुभ योग में प्रवृत्ति करूंगा, इस प्रकार वह संकल्प करता है। साधक प्रतिक्रमण में अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है। उसके मन में, वचन में, काया में एकरूपता होती है। साधक साधना करते समय कभी क्रोध, मान, माया, लोभ के कारण साधना से च्युत हो जाता है, उससे भूल हो जाती है तो वह प्रतिक्रमण के समय अपने जीवन का गहराई से अवलोकन कर एक-एक दोष का परिष्कार करता है। यदि मन में छिपे हुए दोष को लज्जा के कारण प्रकट नहीं कर सका, तो उन दोषों को भी सद्गुरु के समक्ष या भगवान् की साक्षी से 37. योगशास्त्र भाग 2, तृतीय प्रकाश, स्वोपज्ञवृत्ति पृ. 688
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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