SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 6. अवस्थित - जैसे जम्बूद्वीप का प्रमाण सदा एक ही रहता है, वैसे ही द्वादशांगी का प्रमाण सदा एक ही रहता है, उसके किसी अंग में न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती । 7. नित्य - जैसे आकाश त्रिकाल नित्य है, वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक त्रिकाल नित्य है । द्वादशांग की विराधना का कुफल-सुफल नंदीचूर्णि के अनुसार पांच आचार की सम्पदा से सम्पन्न आचार्य का हितोपदेश वचन आज्ञा है । जो उससे विपरीत आचरण करता है, वह गणिपिटक की विराधना करता है । 104 विराधना के फल का उल्लेख नंदीसूत्र में इस प्रकार से है कि इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा की विराधना करके भूतकाल में अनन्त जीवों ने चार गति वाली संसार अटवी में, अनन्तकाल परिभ्रमण किया है, वर्तमान काल में कर रहे हैं और भविष्यकाल में अनन्त जीव, चातुरन्त संसार कान्तार में परिभ्रमण करेंगे 105 नंदीचूर्णि के अनुसार द्वादशांग और आज्ञा एकार्थक है । फिर भी उनमें कुछ भेद है। जब द्वादशांग के आधार पर निर्देश दिया जाता है, तब उसे आज्ञा कहते हैं । 406 आराधना के फल का उल्लेख नंदीसूत्र में करते हुए कहा गया है कि इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा की आराधना करके भूतकाल में अनन्त जीव, चातुरन्त संसार कान्तार को सदा के लिए पार कर गये, वर्तमान काल में पार कर रहे हैं और भविष्य काल में अनन्त जीव, चातुरन्त संसार कान्तार को सदा के लिए पार करेंगे 1407 द्वादशांग गणिपिटक का यह त्रैकालिक फल तभी सत्य हो सकता है जब कि द्वादशांग गणिपिटक स्वयं नित्य हो । श्रुतज्ञान के दो विशिष्ट प्रकार दिगम्बर साहितोय में श्रुत ज्ञान के शब्दलिंगज और अर्थलिंगज ये दो भेद भी प्राप्त होते हैं। परोपदेश पूर्वक या अन्य व्यक्ति के वचनों के द्वारा उत्पन्न होने वाला पदार्थ का ज्ञान शब्दलिंगज श्रुतज्ञान कहलाता है । शब्दलिंगज श्रुतज्ञान लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का होता है। सामान्य पुरुष मुख से निकले हुए वचन समुदाय से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह लौकिक शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है । असत्य बोल के कारणों से रहित पुरुष के मुख से निकले हुए वचन समुदाय से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है तथा धूमादिक पदार्थ रूप लिंग से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, वह अर्थलिंगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है। 108 श्रुतज्ञान के इन दो भेदों में से शब्द लिंगज अर्थात् अक्षर, वर्ण, पद. वाक्य, आदि रूप शब्द से उत्पन्न हुआ अक्षरात्मक श्रुतज्ञान प्रधान है, क्योंकि लेना देना शास्त्र पढ़ना इत्यादि सर्व व्यवहारों का मूल अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है और जो लिंग से अर्थात् चिह्न से उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान है। लिंग रूप श्रुतज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों मे होते हुए भी व्यवहार में उपयोगी नहीं होने से अप्रधान होता है। 409 इन दो भेदों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में प्राप्त नहीं होता है । [284] षट्खण्डागम में श्रुतज्ञान के भेद षट्खंडागम में श्रुतज्ञान (शब्दलिंगज) के दो प्रकार से भेद किये गए हैं। - 1. अक्षर की अपेक्षा से संख्यात और 2. प्रमाण की अपेक्षा से बीस भेद । 404. नंदीचूर्णि पृ. 119 406. नंदीचूर्णि पृ. 119 405. नंदीसूत्र पृ. 203 407. नंदीसूत्र पृ. 203 408. कसायपाहुड, 1.1.15 पृ. 340-341, षट्खण्डागम, पु. 6, 1.9 1.14 पृ. 21, पुस्तक 13, सू. 5.5.43, पृ. 245 409. गोम्मटसार जीवकांड गाथा 315
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy