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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय 5] इसके अध्ययन का क्रम सामायिक से माना गया है। अतः आवश्यक को आचारांग की प्रस्तावना, पीठिका, उत्थानिका रूप समझना चाहिए। पहले निशीथ भी आचारांग में ही रहा हुआ था। निशीथ भी प्रायश्चित्त रूप है और प्रतिक्रमण भी प्रायश्चित्त रूप है। अतः ये दोनों आचारांग में रहे होंगे। टीका और व्याख्याओं में उल्लेख है कि मंगलाचरण को सूत्र का भाग ही समझना चाहिए। इसी प्रकार आवश्यक भी प्रस्तावना रूप होते हुए भी सूत्र के अन्दर ही है। अनुयोगद्वार के रचनाकाल तक आवश्यक को उत्कालिक में स्थान मिल चुका था। कल्याणविजय जी का भी मानना है कि आवश्यक पहले गणधरकृत था तथा बाद में स्थविरकृत हो गया। कुछ भाग गणधरकृत जैसा था, वैसा ही रख दिया गया तथा शेष भाग अपने भावानुसार रच दिये गए। जैसे आवश्यकता होने से कल्पसूत्र को दशाश्रुतस्कंध से पृथक् कर दिया गया वैसे ही आवश्यक को भी आचारांग से पृथक् कर दिया गया है। कतिपय आचार्य आवश्यक को नो कालिक नो उल्कालिक मानते हैं। लेकिन ऐसा मानना उचित नहीं हैं, क्योंकि अंगबाह्य के दो भेद ही हैं - कालिक और उत्कालिक। आवश्यक सूत्र के छह अंग
आवश्यकसूत्र के छह अंग होते हैं - 1. सामायिक 2. चतुर्विंशतिस्तव 3. वन्दन 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग 6. प्रत्याख्यान। दिगम्बर परम्परा में इन छह अंगों में पांचवां प्रत्याख्यान और छठा कायोत्सर्ग है, शेष भेद समान हैं। आन्तरिक दोषों की शुद्धि एवं गुणों की अभिवृद्धि के लिए आवश्यकसूत्र की उक्त छह क्रियाएं कार्यकारी हैं। इनसे आध्यात्मिक विशुद्धि तो होती ही है, साथ ही व्यावहारिक जीवन में समत्व, विनय, क्षमाभाव आदि गुणों की अभिवृद्धि होती है। जिसके फलस्वरूप साधक को आत्मशान्ति का अनुभव होता है।
1. सामायिक आवश्यक -सामायिक जैन आचार का सार है। सामायिक श्रमण और श्रावक दोनों के लिए आवश्यक है। श्रमण के पांच प्रकार के चारित्र हैं। उसमें भी सामायिक चारित्र प्रथम है। इसी प्रकार श्रावक के चार शिक्षा व्रतों में सामायिक व्रत प्रथम है अर्थात् जितने भी श्रावक हैं वे जब साधना का मार्ग स्वीकार करते हैं तो शुरुआत सामायिक से ही करते हैं। जैन आचारदर्शन रूप भव्य प्रासाद का मूल सामायिक है। पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना ही सावधयोग-परित्याग कहलाता है। अहिंसा, समता आदि सद्गुणों का आचरण निरवद्ययोग है। सावधयोग का परित्याग कर शुद्ध स्वभाव में रमण करना 'सम' कहलाता है। जिस साधना के द्वारा उस 'सम' की प्राप्ति हो, वह सामायिक है P 'सम' शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है और 'अयन' का अर्थ आचरण है अर्थात् श्रेष्ठ आचरण का नाम सामायिक है। अहिंसा आदि श्रेष्ठ साधना समय पर की जाती है, वह सामायिक है 7 सामायिक में मन, वचन और काया की दुष्ट वृत्तियों को रोक कर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में सामायिक की परिभाषा करते हुए लिखा है-'सम् एकीभावे वर्तते। तद्यथा, संगतं घृतं संगतं तैलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते। एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समय एव सामायिकम्। समयः प्रयोजनमस्येति वा विग्रह्य सामायिकम्। अर्थात् सम् उपसर्गपूर्वक गति अर्थ वाली 'इण्' धातु से 'समय' शब्द निष्पन्न होता है। सम् - एकीभाव, अय - गमन अर्थात् एकीभाव के द्वारा बाह्य परिणति से पुनः मुड़कर आत्मा की ओर गमन करना समय है। समय का भाव सामायिक है। जिनभद्रगणि के अनुसार सम अर्थात्
26. अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3480 27. आवश्यकसूत्र, प्रस्तावना पृ. 20
28. सर्वार्थसिद्धि, 7.12