________________
[2]
विशेषावश्यक भाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
जैन साधना का मूल प्राण है तथा आवश्यक सूत्र के परिज्ञान से साधक अपनी आत्मा को निरखने-परखने का एक महान् उपाय प्राप्त करता है। साधु साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ द्वारा समाचरणीय नित्य कर्त्तव्य कर्म का स्वरूप आवश्यक सूत्र में प्रतिपादित है। जिनभद्रगणि के अनुसार 'आवश्यक' ज्ञानक्रियामय आचरण है, अतः मोक्षप्राप्ति का कारण है। जिस प्रकार कुशल वैद्य उपयुक्त पथ्य (आहार) के सेवन की आज्ञा देता है, वैसे ही भगवान् ने साधकों के लिए जिन आवश्यक क्रियाओं का विधान किया है, वे आवश्यक हैं। अनुयोगद्वारचूर्णि में आवश्यक की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है 'सुण्णमप्पाणं तं पसत्थभावेहिं आवासेतीति आवासं' - जो गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से आवासित करता है, वह आवश्यक है। अनुयोगद्वार की टीका में समग्रस्यापि गुणग्रामस्यावासकमित्यावासकम्' जो समस्त गुणों का निवास स्थान है, वह आवश्यक है या यों कहें कि जो प्रशस्त गुणों से आत्मा को सम्पन्न करता है, वह आवश्यक है ।
मूलाचार के अनुसार जो राग तथा द्वेषादि विभावों के वशीभूत नहीं होता, वह अवश है। उस अवश का आचरण या कार्य आवश्यक कहलाता है। ऐसे ही भाव नियमसार में भी प्राप्त होते
हैं
अनुयोगद्वार के समान ही विशेषावश्यकभाष्य में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम दिये हैंआवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, अध्ययनषट्कवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग, यथाआवस्सयं अवस्सकरणिज्जं, धुवनिग्गहो विसोही य ।
अझयण- छक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो ॥
उपर्युक्त नाम आवश्यक के स्वरूप, महत्त्व एवं उसके विविध गुणों को प्रकट करते हैं। इस प्रकार इनमें किंचित् अर्थभेद होने पर भी नाम समान अर्थ को ही व्यक्त करते हैं। आवश्यक सूत्र का साधान जीवन में महत्त्व पूर्ण स्थान है । आवश्यक सूत्र के कर्त्ता
डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा के अनुसार आवश्यक के कर्त्ता के बारे में इतिहास मौन है और विद्वानों में भी मतैक्य नहीं है। यह सूत्र किसी एक स्थविर आचार्य की कृति है अथवा अनेक आचार्यों की, इस बारे में स्पष्टतया कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। कुछ विद्वान् इसे किसी एक आचार्य की कृति नहीं मानते हैं । आचार्य भद्रबाहु के सामने भी इसके कर्तृत्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी अन्यथा जैसेकि उन्होंने दशवैकालिक नियुक्ति में दशवैकालिक के कर्त्ता रूप में आचार्य शय्यंभव का उल्लेख किया है वैसे ही आवश्यकनियुक्ति में भी आवश्यक के कर्त्ता का नामोल्लेख अवश्य करते । गणधवाद की भूमिका में पंडित मालवणियाजी ने आवश्यक के कर्त्ता के बारे में विचार करते हुए इसे गधणर प्रणीत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार प्राचीन और अवाचन मान्यताओं के आधार पर यहाँ आवश्यक सूत्र के कर्त्ता के बारे में विचार किया जा रहा है।
3. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3-4
4. उद्धृत युवाचार्य मधुकरमुनि, आवश्यकसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 16-17
5. ण वसो अवसो अवसस्स कम्मावस्सयंति बोधव्वा । मूलाचार गाथा 515
6. नियमसार, गाथा 141
8. आवश्यक निर्युक्ति भाग 1, भूमिका, पृ. 20
7. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 872