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चर्तुथ अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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योगीन्दुदेव (षष्ठ- सप्तम शती) ने श्रुतज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है कि जो अनेक अर्थों का प्ररूपण करने में समर्थ है, ऐसा अस्पष्ट ज्ञान रूढ़िवश - शब्द की व्युत्पत्तिवश श्रवण श्रुत कहलाता है, यह श्रुत का लक्षण है 25
अकलंक (अष्टम शती) के कथनानुसार - यह श्रुत शब्द सुनने रूप अर्थ की मुख्यता से निष्पादित है तो भी रूढ़ि से उसका वाच्य कोई ज्ञान विशेष है। जैसे कुशल शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ कुशका छेदना है। तो भी रूढ़ि से उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात विमल या मनोज्ञ लिया जाता है 26 श्रुतज्ञान का विषयभूत अर्थ श्रुत है । 27 विशेष रूप से तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना, वितर्क करना श्रुतज्ञान कहलाता है। 28
आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार जो श्रुतज्ञान अनेक अंग, पूर्व और प्रकीर्णकरूप शाखाभेदों के द्वारा बहुत प्रकार से विस्तृत है तथा स्याद्वादन्याय से व्याप्त है, अनेकान्त का अनुसरण करता है, वह अनेक प्रकार का है । 29
वीरसेनाचार्य (नवम शती) के अनुसार 1. जिस ज्ञान में मतिज्ञान कारण है, जो मतिज्ञान से ग्रहण किये गये पदार्थ को छोड़कर तत्संबन्धित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं ।
2. अवग्रह से लेकर धारणा पर्यन्त मतिज्ञान के द्वारा जाने गये अर्थ के निमित्त से अन्य अर्थ का ज्ञान होना श्रुतज्ञान है।
विद्यानंद (नवम शती) के कथनानुसार जिस पदार्थ को पहले चक्षुरादि इन्द्रियों तथा मन का अवलम्बन लेकर जान लिया गया है, उस पदार्थ का अवलम्बन लेकर उससे सजातीय विजातीय अन्य पदार्थ को मात्र मन द्वारा परामर्श स्वभावतया ( विचार पूर्वक) जानने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। 2
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नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (एकादश शती) के कथनानुसार मतिज्ञान के द्वारा निश्चित अर्थ का अवलम्बन लेकर उससे सम्बद्ध अन्य अर्थ को जानने वाले जीव के ज्ञान को, जो श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं उसको शब्द कहते हैं, उससे उत्पन्न अर्थज्ञान को ही प्रधान हुआ, अथवा श्रुत ऐसा रूढि शब्द है। अभयचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ती के अनुसार का ज्ञान श्रुतज्ञान है।
अथवा जो सुना जाता है, श्रुतज्ञान कहते हैं। इस अर्थ में अक्षरात्मक श्रुतज्ञान पंचसंग्रह में भी यही परिभाषा मिलती है 4
मतिज्ञान द्वारा ग्रहण किये गये अर्थ से भिन्न अर्थ
स्वामी कार्तिकेय के अनुसार जो ज्ञान सब वस्तुओं को अनेकांत, परोक्ष रूप से प्रकाशित करता (कहता) है और जो संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित है उसको श्रुतज्ञान कहते हैं। 6 25. तत्त्वार्थवृत्ति सूत्र 1.20, पृ. 42
27. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 2.21
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26. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.20.1
28. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9.43
29. प्रसृतं बहुधानेकैरंगपूर्वैः प्रकीर्णकैः । स्याद्वादन्यायसंकीर्ण श्रुतज्ञानमनेकधा । ज्ञानार्णव, प्र. 7 गाथा 5, पृ. 160
30. षट्खण्डागम पुस्तक 1 पृ. 93 एवं षट्खण्डागम पुस्तक 6 पृ. 21
31. षट्खण्डागम (धवला) पु. 13 पृ. 245
32. श्रुतस्य साक्षात् श्वमनिमितत्वासिद्धेः तस्यानिन्द्रियवत्वाद्दष्टार्थ, सजातीयविजातीयनानार्थ परामर्शनस्वभावतया प्रसिद्धत्वात् ।
तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक, 1.9.32, पृ. 165
34. पंचसंग्रह, गाथा 122, पृ. 26
33. गोम्मटसार (जीवकांड), भाग 2, गाथा 315 पृ. 523-524
35. मतिज्ञानगृहीतार्थादन्यस्यार्थस्वज्ञानं श्रुतज्ञानं कर्मप्रकृति, पू. 5
36. सव्यं पि अणेयंत परोक्खरूवेण जं पसादितं सुवणाणं भणादि संसयपदीहि परिचत्तं कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा०262, पृ.116