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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अविच्युति, वासना (संस्कार) और स्मृति इन तीनों को धारणा रूप स्वीकार किया गया है। इस प्रकार जिनभद्रगणि धारणा के तीन अर्थों का प्रतिपादन करते हैं। प्रथम अर्थ के अनुसार अवाय के पश्चात् तत्सम्बद्ध अर्थ के उपयोग का नाश नहीं होना, धारणा है, जिसे अविच्युति भी कहा गया है। द्वितीय अर्थ में ज्ञात विषय का जीव के साथ वासना रूप संस्कार को धारणा कहा गया है। तीसरे अर्थ के अनुसार जिससे कालान्तर में स्मृति होती है, उसे भी धारणा स्वीकार किया गया है। ऐसा ही उल्लेख जिनदासगणि, हरिभद्र, वादिदेवसूरि, मलधारी हेमचन्द्र, मलयगिरि, यशोविजय आदि ने किया है।58
श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने अकलंक का अनुसरण करते हुए जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के मन्तव्य का समन्वय करने का प्रयास किया है। 59 हेमचन्द्र कहते हैं कि स्मृति अतीत का अनुसंधान करने वाली होती है, उसका कारण धारणा है जो संस्कार रूप है और वह प्रत्यक्ष का भेद होने से ज्ञान रूप है। वैशेषिक संस्कार को अज्ञान रूप मानते हैं, लेकिन यह उचित नहीं है, क्योंकि संस्कार को अज्ञान रूप मानने पर वह आत्मा (चेतन) का अर्थ नहीं हो सकेगा। इसलिए पूर्वाचार्यों ने जो अविच्युति को धारणा रूप में स्वीकार किया है, वह सही है। लेकिन अविच्युति का समावेश अवाय में हो सकता है, क्योंकि अवायज्ञान उत्पन्न होने के बाद दीर्घ-दीर्घतर काल तक रहता है, इसलिए वह अवाय अविच्युति रूप है, इसलिए उसका पृथक् से कथन नहीं किया है। अथवा अविच्युति भी स्मृति का हेतु होने से उसका अन्तर्भाव धारणा में किया है। क्योंकि बिना अविच्युति के अवाय मात्र से स्मृति उत्पन्न नहीं हो सकती है। अतः स्मृति के हेतु रूप में अविच्युति और संस्कार दोनों का ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार हेमचन्द्र ने अविच्युति को भी अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करके जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के साथ समन्वय करने का प्रयास किया है।
पूज्यपाद की परम्परा के आचार्यों ने उसको श्रुतज्ञान के रूप और जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण की परम्परा के आचार्यों ने स्मृति को मतिज्ञान रूप में स्वीकार किया है। विद्यानंद ने शब्दानुयोजना रहित मति को स्मृति रूप और शब्दानुयोजना सहित स्मृति को श्रुत रूप मानकर दोनों को समन्वय करने का प्रयास किया है। धारणा के सम्बन्ध में प्राप्त मतान्तर का जिनभद्रगणिद्वारा समाधान___जिनभद्रगणि ने अन्य दर्शनों की ओर से प्रश्न उठाते हुए कहा है कि अविच्युति, स्मृति गृहीतग्राही होने से तथा वासना संख्यात/असंख्यात काल की होने से धारणा रूप नहीं हो सकती है, अतः मतिज्ञान का धारणा रूपी भेद घटित नहीं होने से मतिज्ञान के तीन ही भेद प्राप्त होंगे, चार नहीं। इसके सम्बन्ध में जिनभद्रगणि के उत्तर का सारांश निम्न प्रकार से है
1. अविच्युति में प्रथम, द्वितीय आदि बार अपाय द्वारा जो वस्तु गृहीत है, उनका काल भिन्न है, उनमें गृहीतग्राहिता का दोष नहीं आता है। अविच्युति रूप से द्वितीया, तृतीया आदि अपाय का विषय बनने वाली वस्तुएं भिन्न-भिन्न धर्मवाली होती हैं। वह अलग-अलग वासना रूप होती है, इसलिए अविच्युति गृहीतग्राही नहीं है।
2. स्मृति भी गृहीतग्राही नहीं है, क्योंकि पूर्वसमय और उत्तर समय में अविषयकृत वस्तु के एकत्व को ग्रहण करती है। 457. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 290 458. नंदीचूर्णि पृ. 56, हारिभद्रीय पृ. 57, प्रमाणनयतत्वालोक 2.10, मलधारी हेमचन्द्र वृत्ति गाथा 180 पृ. 81, मलयगिरि पृ. 168 459. स्मृतिहेतुर्धारणा। - प्रमाणमीमांसा 1.1.29
460. प्रमाणमीमांसा, 1.1.29 461. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 188-189, प्रमाणमीमांसा, 1.2.2