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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
२. मार्गणता - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में पाये जाने वाले अन्वय धर्म और नहीं पाये जाने वाले व्यतिरेक धर्मों का विचार करना -'मार्गणता' है। जैसे उक्त स्थाणु के विषय में यह विचार होना कि ‘जो स्थाणु होता है, उसमें निश्चलता, लताओं का चढ़ना, कौओं का बैठना, मँडराना आदि धर्म पाये जाते हैं और जो पुरुष होता है, उसमें चलमानता, अंगोपांगता, सिर खुजालना आदि धर्म पाये जाते हैं, यह विचार होना मार्गणता है । यह ईहा की दूसरी अवस्था है ।
३. गवेषणता - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में, न पाये जाने वाले व्यतिरेक धर्मों को त्यागते हुए उसमें पाये जाने वाले अन्वय धर्मों का विचार करना - ' गवेषणता' है। जैसे- उक्त स्थाणु के प्रति यह विचार होना कि इस स्थाणु में पुरुष में पाये जाने वाले लक्षण जैसे हलन चलन होना, सिर खुजलाना आदि कोई धर्म नहीं पाया जाता, परन्तु स्थाणु में पाये जाने वाले हलन-चलन रहित, लताओं का चढ़ना, कौओं का मंडराना आदि धर्म पाये जाते हैं- ' गवेषणता' है। यह ईहा की तीसरी अवस्था है।
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४. चिन्ता - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में पाये जाने वाले अन्वय धर्मों का बारंबार चिन्तन करना-'चिन्ता' है। जैसे- उक्त स्थाणु के निर्णय के लिए आँखें मलकर, आँख को पुनः पुनः खोलते बन्द करते हुए, सिर को ऊँचा - नीचा कर देखते हुए, बार-बार इसका विचार करना कि 'मैं जो स्थाणु में पाये जाने वाले धर्म देख रहा हूँ, क्या वह यथार्थ हैं अथवा कहीं कुछ भ्रम है ?"- चिन्ता है। यह ईहा की चौथी अवस्था है।
५. विमर्श - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ (अर्थ) में पाये जाने वाले नित्य और अनित्य धर्मों का स्पष्ट विचार करना - 'विमर्श' है। जैसे- स्थाणु के कुछ समीप जाकर, उसे देखकर, यह चिंतन करना कि इसमें स्पष्टतः स्थाणु में पाये जाने वाले धर्म दिखाई देते हैं-विमर्श है। यह ईहा की पांचवी अवस्था है I
गवेषणा और विमर्श में अन्तर - हरिभद्र और मलियगिरि के अनुसार गवेषणा और विमर्श में व्यतिरेक धर्म के त्यागपूर्वक अन्वय धर्म का विचार करना, यह दोनों में समान है, लेकिन गवेषणा में अभ्यास का तत्त्व है, जो विमर्श में नहीं पाया जाता है। 384 अतः गवेषणा करते हुए विमर्श में हुआ ज्ञान स्पष्टतर और निर्णयात्मक होता है।
तत्त्वार्थभाष्य में ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा इन छह शब्दों का उल्लेख मिलता है। 85 लेकिन इनकी परिभाषा नहीं मिलती है । नंदीसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र में एक भी भेद समान नहीं है।
षट्खण्डागम में ईहा, ऊहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा इन छह शब्दों का उल्लेख मिलता है। षट्खण्डागम और नंदीसूत्र के उपर्युक्त भेदों में मार्गणा और गवेषणा भेद समान हैं । तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में ईहा और ऊहा ये दो भेद समान हैं। नंदी में वर्णित पर्यायवाची शब्द ईहा ज्ञान की क्रमिक अवस्था का सूचक है जबकि षट्खण्डागम में दिये गये क्रम से ऐसा प्रतीत नहीं होता है ।
आवश्यकनिर्युक्ति आदि में अपोह का अर्थ अवाय है जबकि षट्खण्डागम और धवलाटीका में इसका अर्थ ईहा है, क्योंकि आगमकालीन युग में ईहा के बाद अपोह का प्रयोग हुआ है 187 384. हारिभद्रीय 59, मलयगिरि 176
385. ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासेत्यनर्थान्तरम् । तत्त्वार्थभाष्य 1.15 पृ. 81
386. षट्खण्डागम, पु. 13., सू 5.5.38 पृ. 242
387. ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अण्णाणे समुप्पन्ने। भवतीसूत्र श. 11. उ. 9 पृ. 41