________________
तृतीय अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान
[165]
5. व्यंजनावग्रह उपकरणेन्द्रिय और वस्तु के संयोग से होता है। यह चक्षु इन्द्रिय और मन को छोड़ शेष चार इन्द्रियों से ही होता है । अर्थावग्रह श्रोत्रादि पांचों इन्द्रियों और मन से होता है । 6. व्यंजनावग्रह चारों इन्द्रियों से एक साथ हो सकता है, किन्तु अर्थावग्रह अनुक्रम से एक एक - एक इन्द्रिय का ही होगा। जैसे हवा का स्पर्श भी हो रहा है, सुगन्ध भी आ रही है, तथा देखना, सुनना भी हो रहा है। सभी पुद्गलों का इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष हो रहा है। किन्तु उपयोग इनमें से किसी एक में ही होता है।
7. ग्रंथों के अनुसार किसी भी वस्तु के उपयोग लगाते समय उसमें व्यंजनावग्रह तक तो मन नहीं जुड़ता है, किन्तु अर्थावग्रह तक मन जुड़ जाता है 09 अवग्रह ज्ञान प्रमाण है या नहीं?
-
अब यह विचार किया जा रहा है कि अवग्रह ज्ञान प्रमाण है या नहीं? यदि प्रमाण है तो प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण उसमें अन्वित होता है या नहीं ? इस सम्बंध में दो परम्पराएं प्राप्त होती हैं। एक आगमिक परम्परा और दूसरी प्रमाणमीमांसीय परम्परा । आगमिक परम्परा में अवग्रह का प्रमाण होना सिद्ध नहीं होता, किन्तु प्रमाणमीमांसीय परम्परा में इसकी सिद्धि के लिए समुचित प्रयास किया गया है। डॉ. नथमल टाटिया के अनुसार जैन नैयायिकों ने आगमिक अवधारणा में निरूपित अनिश्चयात्मक ज्ञान स्वरूप अवग्रह को प्रमाण स्वीकार नहीं किया है
आगमिक परम्परा
आगमिक परम्परा में दोनों परम्परा के आचार्य समर्थक हैं। आगम-परम्परा के जिनभद्र क्षमाश्रमण आदि श्वेताम्बर दार्शनिकों के मत में अवाय ज्ञान ही निश्चयात्मक होता है, उससे पूर्व होने वाले अवग्रह एवं ईहाज्ञान निर्णयात्मक नहीं होते हैं दिगम्बर परम्परा में अवग्रह ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है, क्योंकि स्व-प्रकाशकता दर्शन का विषय है, ज्ञान का नहीं। निर्णयात्मकता भी अवायज्ञान में ही मानी गई है, अवग्रह और ईहा में नहीं मानी गई । श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य जिनभद्रगणि का मन्तव्य अवग्रह और संशय में अन्तर के अन्तर्गत स्पष्ट किया जाएगा।
यहाँ दिगम्बर परम्परा के आचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट कर रहे हैं।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में शंका उठायी गई हैं कि चक्षु द्वारा वस्तु के दृष्टिगोचर होते हुए भी उसके ज्ञान में संशय होता है। अतः उसे निर्णय नहीं कह सकते हैं उसी तरह अवग्रह के होते हुए ईहा देखी जाती है। ईहा निर्णय रूप नहीं है और जो स्वयं निर्णय रूप नहीं है वह अप्रमाण की ही कोटि में होता है, अतः अवग्रह और ईहा को प्रमाण नहीं कह सकते हैं। समाधान में अकलंक कहते हैं कि यह कथन उचित्त नहीं है, क्योंकि अवग्रह संशय नहीं है, क्योंकि 'अवग्रह' अर्थात् निश्चय ऐसा कहा गया है। जो कि उक्त पुरुष में 'यह पुरुष है' ऐसा ग्रहण तो अवग्रह है और उनकी भाषा, आयु व रूपादि विशेषों की जानने की इच्छा का नाम ईहा है । 11
पूर्वपक्ष अनिर्णय स्वरूप होने के कारण अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर उसका संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अन्तर्भाव होगा ।
309. मलयगिरि पृ. 169
310. "The Agamika Conception of the avagraha as indeterminate cognition was not upheld by the jaira Logicians in view at its indefiniteness and lack of Pragmatic value"
- डॉ. नथमल टाटिया "Studies in Jaira Philospy" वाराणसी- पार्श्वनाथ विद्यापीठ, पृ. 4D
311. राजवार्तिक 1.15.6