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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अकलंक ने राजवार्तिक में 48 भेदों का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु लघीयस्त्रय में इन भेदों का उल्लेख किया है और इनका प्रामाण्य भी सिद्ध किया है। 167
षट्खण्डागम में बहु आदि 12 भेदों का शब्दतः उल्लेख नहीं है. लेकिन मति के 336 आदि भेद स्वीकार करने से बहु आदि को अर्थतः रूप से स्वीकार किया है। 68 तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मतिज्ञान के भेद
तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के 2, 4, 28, 168 और 336 भेदों का उल्लेख मिलता है। (तत्त्वार्थभाष्य 1.19) तत्त्वार्थ सूत्र में मतिज्ञान के दो भेद के रूप में इन्द्रियनिमित्त और अनिन्द्रियनिमित्त, शेष 4, 28, 168 और 336 भेदों का खुलासा षट्खण्डागम के अनुसार है । बहु आदि 12 भेदों का उल्लेख सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र में ही प्राप्त होता है। 69 जिनभद्रगणि और मलयगिरि आदि ने भी बहु आदि का उल्लेख किया है। 170
सारांश - तीनों परम्पराओं का समावेश करने पर मतिज्ञान के भेदों की संख्या निम्न प्रकार से प्राप्त होती है - 2, 4, 24, 28, 32, 48, 144, 168, 192, 288, 336, 340, 341 और 384 भेद मतिज्ञान के प्राप्त होते हैं । वास्तव में मतिज्ञान के मूल में 28 भेद (नंदीसूत्र के अनुसार) ही थे, जो काल क्रम और अपेक्षा से बढ़ते और घटते गये हैं।
श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान
मुख्य रूप से मतिज्ञान के दो भेद हैं- 1. श्रुतनिश्रित 2. अश्रुतनिश्रित । आभिनिबोधिक ज्ञान के यह दो भेद सर्वप्रथम नंदीसूत्र में प्राप्त होते हैं। मतिज्ञान के इन भेदों का नंदी परम्परा के आचार्यों ने समर्थन किया है। 71 षट्खण्डागम और तत्त्वार्थ परम्परा के आचार्यों ने इन भेदों का उल्लेख नहीं करते हुए अवग्रहादि को ही सामान्य रूप से मतिज्ञान के भेद रूप में स्वीकार किया है।172 इन दोनों भेदों की ऐतिहासिकता की चर्चा पं. सुखलाल संघवी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरणम् 73 के परिचय में करते हुए कहा है कि उक्त दोनों भेद उतने प्राचीन नहीं, जितने प्राचीन मतिज्ञान के अवग्रहादि भेद है। क्योंकि मतिज्ञान के अवग्रह आदि तथा बहु, बहुविध आदि भेद श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में समान रूप से प्राप्त होते हैं। लेकिन उक्त दोनों भेदों का कथन मात्र श्वेताम्बर परम्परा में ही प्राप्त होता है । श्वेताम्बर ग्रन्थों में अनुयोगद्वार और नियुक्ति के काल तक तो इनका उल्लेख नहीं है । ये भेद सर्वप्रथम नंदीसूत्र में प्राप्त होते हैं, इसलिए संभवत: नंदी की रचना के समय से विशेष प्राचीन नहीं है, यह भी संभव हो कि यह भेद नन्दीकार ने ही किये हों। लेकिन नंदीसूत्र में इनकी परिभाषा नहीं मिलती है। इनकी परिभाषा सर्वप्रथम जिनभद्रगणि के विशेषावश्यकभाष्य में प्राप्त होती है।
1. श्रुतनिश्रित - जिसकी मति श्रुत से पहले ही संस्कारित (परिकर्मित) हो चुकी है, ऐसे व्यक्ति को व्यवहार काल में उस श्रुत की अपेक्षा किये बिना ही जो ज्ञान उत्पन्न होता वह श्रुतनिश्रित है अर्थात् जो मति श्रुत से परिकर्मित / संस्कारित है, किन्तु वर्तमान व्यवहारकाल में श्रुत से निरपेक्ष है, वह श्रुतनिश्रित मति है।
167. राजवार्तिक 1.19.10, धवला पु. 13, सू. 5.5.34-35 पृ. 234-241
168. षट्खण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.35
169. तत्त्वार्थभाष्य 1.16
170. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 307, मलयगिरि पृ. 183, जैनतर्कभाषा पृ. 21
171. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 300-302, नंदीचूर्णि पृ. 56-64, हारिभद्रीय 57-66, मलयगिरि पृ. 144-177
172. षट्खण्डागम पु. 13 सू. 5.5.22-35, तत्त्वार्थसूत्र 1.15, राजवार्तिक 1.15 173. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, परिचय पृ. 24-25