________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [137] सद्भाव को मानने से भावश्रुत का अभाव प्राप्त होगा। यदि मतिसहित शब्द को भावश्रुत मानते हैं तो मति और श्रुत में सांकर्य दोष आने से जो मतिज्ञान है वही भावश्रुत है, ऐसा मानने से दोनों में एकत्वपना प्राप्त होने से मति-श्रुत में अभेद प्राप्त होगा जो कि आगमानुसार नहीं है।35 जिनभद्रगणि दृष्टांत को सही तरीके से घटाते हुए कहते हैं कि आगम में मतिपूर्वक भावश्रुत का सद्भाव कहा है, इसलिए मति को वल्क (कारण) के समान और भावश्रुत शुम्ब (कार्य) के समान मानने से दृष्टांत की संगति बैठती है। जीव मति से चिन्तन करता है, उसके बाद श्रुत की परिपाटी का अनुसरण करता है अर्थात् वाच्यवाचक भाव रूप में परोपदेश या श्रुतग्रन्थ का वस्तु के साथ नियोजन करता है, इसलिए वल्क व शुम्ब के समान मति व श्रुत में कार्यकारण भाव होने से परस्पर भेद की सिद्धि हो सकती है और दृष्टांत भी सही तरीके से घटित होता है।136 उपर्युक्त चर्चा का सारांश यह है कि मतिज्ञान और द्रव्यश्रुत में तथा मतिज्ञान का प्रसंग होने से भावश्रुत और द्रव्यश्रुत में भी वल्क और शुम्ब का दृष्टांत घटित नहीं होता है। मतिज्ञान और भावश्रुत के लिए यह दृष्टांत घटित हो सकता है। नंदी के टीकाकारों ने भी लगभग ऐसा ही उल्लेख किया है।37 6. अनक्षर-अक्षर से मति-श्रुत में अन्तर पूर्वपक्ष - मति अनक्षर रूप तथा श्रुत अक्षर-अनक्षर (उभयात्मक) रूप होने से दोनों में भेद है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते है कि यदि पूर्वपक्ष मति को अनक्षर मानेगा तो ईहादि जो शब्दोल्लेख सहित होते हैं जैसेकि 'यह स्थाणु है या पुरुष है?' आदि विकल्पों का समावेश मति में कैसे होगा? पूर्वपक्ष - आगम में मतिज्ञान के ईहादि भेदों को श्रुतनिश्रित बताया है, इसलिए अक्षरात्मक मतिज्ञान से ईहादि का ज्ञान होना मान लेंगे, बुद्धि (मति) से नहीं, क्योंकि वह अनक्षर रूप है। उत्तरपक्ष - 1. यदि ईहादि ज्ञान को श्रुत का व्यापार मानेंगे तो मतिज्ञान में अवग्रह के अलावा कुछ भी नहीं रहेगा। 2. श्रुत से ईहादि का ज्ञान तो होता है, किन्तु वह ज्ञाता के श्रुत रूप नहीं होकर मति रूप ही है, तो इससे तो श्रुत का अभाव प्राप्त हो जाएगा। 3. ईहादि की पर्याय के ज्ञान के समय मति-श्रुत का उपयोग उभयात्मक मानते हो तो यह भी सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। 4. ईहादि के ज्ञान द्वारा प्रमाता का ज्ञान अक्षरानुसारी होने से श्रुतनिश्रित है, मानने पर औत्पातिकी आदि चारों मतियाँ भी श्रुतनिश्रित रूप हो जायेंगी क्योंकि औत्पातिकी आदि चार बुद्धियां ईहादि के अभाव में नहीं होती हैं। जबकि आगम में चार बुद्धियों को अश्रुतनिश्रित बताया है। जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्र कहते है कि पूर्व में श्रुत से संस्कारित मति वाला जो ज्ञान, वर्तमान में श्रुत निरपेक्ष रूप मे प्रवृत्त होता है, वह श्रुतनिश्रित है, शेष औत्पातिकी आदि चार बुद्धियां अश्रुतनिश्रित हैं। अतः अवग्रह और औत्पातिकी आदि बुद्धि की अपेक्षा से मतिज्ञान अनक्षर और ईहादि की अपेक्षा से अक्षर रूप है, अत: मतिज्ञान भी उभयात्मक है। इन दोनों ज्ञानों में भेद का मुख्य कारण है कि श्रुत में द्रव्याक्षर का सद्भाव है, जबकि मति में द्रव्याक्षर नहीं होता है, क्योंकि द्रव्यमति के रूप में मतिज्ञान का प्रयोग रूढ़ नहीं है, इस प्रकार दोनों में द्रव्याक्षर की अपेक्षा साक्षरता और अनक्षरता से अन्तर है।38 जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार मति-श्रुत में उपर्युक्त अन्तर का मुख्य कारण है कि पुस्तक में लिखित अकारादि वर्ण तथा ताल्वादि करणजन्य शब्द व्यंजानक्षर हैं। अंतर में 135. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 155 एवं बृहद्वृत्ति 137. नंदीचूर्णि पृ. 51, मलयगिरि पृ. 142 136. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 156-161 एवं बृहद्वृत्ति 138. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 162-169 एवं बृहद्वृत्ति