________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [129] प्रश्न - स्वामी, काल, कारणादि की दृष्टि से मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में समानता होने से चार ही ज्ञान मानना चाहिए, पांच नहीं। उत्तर- समानता होते हुए भी लक्षण आदि भेद से दोनों में विभिन्नता है। जैसेकि कुछ धर्मों में समानता होने से घट और पट को समान नहीं मान सकते हैं, क्योंकि इन दोनों के बहुत से धर्मों में भिन्नता होती है, जिससे दोनों पदार्थों में एकत्व स्वीकार नहीं किया जाता है। यदि एकत्व मानेंगे तो सम्पूर्ण विश्व एक रूप हो जायेगा, क्योंकि सभी वस्तुओं में परस्पर कुछ न कुछ धर्मों के कारण समानता पाई जाती है। जिनदासगणि के अनुसार मति और श्रुत अन्योन्य अनुगत हैं। इनमें स्वामी, काल आदि का अभेद है, फिर भी इनमें भिन्नता है। जैसे आकाशप्रतिष्ठ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय अन्योन्यअनुगत होने पर भी अपने-अपने लक्षण भेद से भिन्न हैं। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मति-भूत ज्ञान में अन्तर भाष्यकार ने मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में लक्षण, हेतु-फल, भेद-विभाग, इन्द्रिय विभाग से तथा वल्क, अक्षर, मूक-अमूक आदि अपेक्षाओं से भेद को स्पष्ट किया है। 1. लक्षणभेद से मति-श्रुत में अन्तर मति-श्रुतज्ञान में भिन्नता का प्रथम कारण है कि दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। नंदीसूत्र के अनुसार जिससे आभिनिबोधिक हो, वह आत्मा का ज्ञानोपयोग परिणाम आभिनिबोधिकज्ञान है तथा जिस ज्ञानोपयोग परिणाम से सुना जाये वह आत्मा का श्रुतज्ञान है तथा श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, पर मति, श्रुतपूर्वक नहीं होती, इस कारण मति और श्रुत दोनों भिन्न हैं / जिनभद्रगणि के वचनानुसार -1. जो ज्ञान वस्तु को जानता है, वह आभिनिबोधिक अथवा मतिज्ञान है। जिसे जीव सुनता है, वह श्रुत ज्ञान है। इस प्रकार दोनों का लक्षण अलग होने से दोनों भिन्न हैं। 2. जो ज्ञान श्रुतानुसारी होकर मन और इन्द्रिय का निमित्त मिलने पर अपने अर्थ को प्रकट करता है, वह श्रुतज्ञान तथा इन्द्रिय और मन का निमित्त मिलने पर भी जो श्रुतानुसारी नहीं होता है, वह मतिज्ञान कहलाता है। नंदीसूत्र में जो 'मतिपुव्वं जेण सुयं, ण मति सुयपुब्विया' कह कर लक्षण भेद किया, इसका उल्लेख जिनभद्रगणि ने हेतु व फल की अपेक्षा से मति-श्रुत में अन्तर के अन्तर्गत किया गया है। अत: इसका उल्लेख आगे करेंगे। आवश्यकचूर्णि में कहा है कि जो अर्थ का विमर्श कर उसका निर्देश नहीं करता, वह मतिज्ञान है। जो विमर्शपूर्वक अर्थ का निर्देश करता है, वह श्रुतज्ञान है।” नंदीवृत्ति में मलयगिरि ने उल्लेख किया है कि परस्पर अनुगत होने पर भी मति और श्रुत अपने-अपने लक्षण से भिन्न हैं। जिस परिणाम विशेष से आत्मा इन्द्रिय और मन के माध्यम से योग्य देश में अवस्थित नियत अर्थ को जानती है, वह परिणाम विशेष आभिनिबोधिक ज्ञान है। रूपी अरूपी पदार्थ को मतिज्ञान से ग्रहण कर या स्मरण कर उसे और उसके वाचक शब्द को, उस वाच्य 90. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 85 91. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 96 92. नंदीचूर्णि, पृ. 51 93. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 97 94. अभिणिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियणाणं, सुणेइत्ति सुयं। 2. मतिपुव्वं जेण सुयं, ण मति सुयपुव्विया। - नंदीसूत्र, पृ. 70 95. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 98 96. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 100 97. आवश्यकचूर्णि 1 पृ. 7-8