________________ [122] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन होना। इसको दृष्टांत द्वारा समझाया है, जैसे सामने स्थित स्थाणु को स्थाणु जानना, उसे पुरुष नहीं जानना। यथा रात्रि के मंद प्रकाश के कारण पुरुष के आकार का स्थाणु देखकर व्यक्ति सोचता है कि यह पुरुष है अथवा स्थाणु? वल्लियों से परिवेष्टित अथवा पक्षियों से युक्त उस स्थाणु को देखकर यह ज्ञात होता है कि यह स्थाणु है। मलधारी हेमचन्द्र (द्वादश शती) ने बृहद्वृत्ति में मतिज्ञान को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है - 'अभि' का अर्थ है-अभिमुख, 'नि' का अर्थ है-नियत और 'बोध' का अर्थ है-जानना। अतएव द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के कारण द्रव्य इन्द्रियाँ और द्रव्य मन ग्रहण कर सके, ऐसे योग्य क्षेत्र में रहे हुए रूपी या अरूपी द्रव्यों को आत्मा नियत रूप से जिस ज्ञान-उपयोग परिणाम विशेष से जानती है, उसे 'आभिनिबोधिक ज्ञान' कहते हैं। नंदीवृत्ति में मलयगिरि (त्रयोदश शती) ने अर्थ किया है कि आभिनिबोधिक ज्ञान अभिनिबोधावरण कर्म (मतिज्ञानावरण कर्म) के क्षयोपशम से निष्पन्न है। यह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला तथा उचित क्षेत्र में अवस्थित वस्तु को ग्रहण करने वाला स्पष्ट अवबोध है। यशोविजय (अष्टादश शती) के मतानुसार - जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से ही होता है, किन्तु श्रुत का अनुसरण नहीं करता है, तो वह मतिज्ञान कहलाता है। दिगम्बराचार्यों के अनुसार मतिज्ञान की परिभाषा आचार्य गुणधरानुसार (द्वितीय-तृतीय शती) - इन्द्रिय और मन के निमित्त से शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धादिक विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है, क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष के अनन्तर उसकी उत्पत्ति होती है।" पूज्यपाद (पंचम-षष्ठ शती) के अनुसार - 1. इन्द्रिय और मन के सहयोग से यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मननमात्र मतिज्ञान कहलाता है। योगीन्दुदेव की तत्त्वार्थवृत्ति में यही परिभाषा मिलती है। 2.जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है, वह मतिज्ञान है। अमृतचन्द्रसूरि ने भी यही परिभाषा दी है। अकलंक (अष्टम शती) के कथनानुसार - मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानना मति है। कर्ता अर्थ में मति शब्द 'मनुतेऽर्थान्' पदार्थों को जाने वह मति है। करण अर्थ में मति 'मन्यतेऽनेनेति मतिः' जिसके द्वारा पदार्थ जाने जायें वह मति है।6 7. आवश्यक चूर्णि 1 पृ. 7-8 8. मलधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 80 की टीका, पृ. 45 9. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65 10. तत्रेन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतानुसारि ज्ञानं मतिज्ञानम्। - जैन तर्कभाषा, पृ. 6 11. इंदिय णोइंदिएहि सद्द-परिस-रूव-रस-गंधादि विसएसु ओग्गह-ईहावाय-धारणओ मदिणाणं, इंदियट्ठसण्णिकरिस समणंतरमुप्पण्णत्तादो। - कसायपाहुड (जयधवल/महाधवल) प्रथम भाग, पृ. 38 12. इन्दियैर्मनसा च यथा स्वमर्थी मन्यते अनया मनुते मननमात्रं वा मतिः। - सर्वार्थसिद्धि, 1.9, पृ. 67 13. मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे सति पंचभिरिन्द्रियैर्मनसा च यथास्वमर्थान्यन्यते मनुते वा पुरुषो मया सा मतिः। मननमात्रं वा मतिः। - तत्त्वार्थवृत्ति सूत्र 1.9, पृ. 29 14. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्। सर्वार्थसिद्धि, 1.14, पृ. 77 15. तत्त्वार्थसार, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी-5, प्रथम अधिकार, गाथा 20 पृ. 7 16. तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षमर्थस्य मननं मति औदासीन्येन तत्त्वकथनात् / बहुलापेक्षया कर्तृसाधनः करणसाधनो वा, 'मनुतेऽर्थान् मन्यतेऽनेन' इति वा मतिः। - तत्त्वार्थराजतार्तिक, 1.9.1 पृ. 32