SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [117] और मन:पर्यवज्ञान इन चारों ज्ञानों की सहायता की अपेक्षा नहीं रहती है। ये चारों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं इसलिये इन चारों ज्ञानों के छूट जाने पर यह केवलज्ञान उत्पन्न होता है। कुछ लोगों की मान्यता है कि केवलज्ञान हो जाने पर मतिज्ञान आदि चारों ज्ञानों का केवलज्ञान में अन्तर्भाव (समावेश) हो जाता है किन्तु यह मान्यता आगम सम्मत नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक भाव है और मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है। इसलिए क्षायोपशमिक भाव का क्षायिक भाव में समावेश नहीं होता है। ज्ञान के मुख्य रूप से तीन साधन होते हैं - 1. इन्द्रिय, 2. मन और 3. आत्मा। इसमें से प्रथम दो परोक्ष ज्ञान के तथा आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञान का मुख्य रूप से साधन होती है। ___ संसारी आत्मा को पहचानने का जो लिंग होता है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैनदर्शन में इन्द्रियों को पौद्गलिक माना है, जिससे नैयायिकों के मत का खण्डन हो जाता है। इन्द्रियों के श्रोत्रेन्द्रियादि पांच भेद होते हैं। पुनः पांच इन्द्रियों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया गया है - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय दो प्रकार की होती है - निर्वृति और उपकरण। निर्वृति द्रव्येन्द्रिय के पुनः दो भेद होते हैं - ब्राह्यनिर्वृति (इन्द्रिय का संस्थान विशेष) और आभ्यंतर (सभी जीवों में संस्थान समान होता है)। जो निर्वृति द्रव्येन्द्रिय में उपकारक हो वह उपकरणेन्द्रिय है। भावेन्द्रिय के दो भेद होते हैं - लब्धि भावेन्द्रिय (सभी आत्मप्रदेशों पर आवरक कर्मों का क्षयोपशम होना) और उपयोग भावेन्द्रिय (विषय में प्रवृत्त होना)। जीव के सभी आत्म-प्रदेशों पर इन्द्रिय ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होते हुए भी स्थान विशेष से इन्द्रिय के विषय का ग्रहण होता है। जैसे चक्षु से ही रूप का ग्रहण होता है। द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय में आपस में कार्य और कारण भाव होता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में चक्षु इन्द्रिय और मन को प्राप्यकारी स्वीकार किया गया है। अतः जिनभद्रगणि ने तर्क पूर्वक चक्षुइन्द्रिय और मन को अप्राप्यकारी सिद्ध किया है। क्योंकि यदि चक्षु और मन को प्राप्यकारी स्वीकार किया जाए तो जाने गये पदार्थ से उत्पन्न अनुग्रह (सुख) और उपघात (दु:ख) का कारण भी उसी पदार्थ को मानना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में पानी को देखने से आंखों में शीतलता का और अग्नि को देखने पर उष्णता का अनुभव होगा। इसी प्रकार मन में जल का चिन्तन करने पर आर्द्रता और अग्नि का चिन्तन करने पर दाह होना चाहिए, लेकिन ऐसा व्यवहार में नहीं होता है इसलिए यह दोनों अप्राप्यकारी हैं। इन्द्रियां मतिज्ञान में सहायक होती हैं। अत: श्रोत्रेन्द्रियादि पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ग्रहण करती हैं, लेकिन अपने-अपने विषय को भी भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण करती हैं। जैसेकि श्रोत्रेन्द्रिय शब्द का स्पर्श होने पर सुनती है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय तो रूप को बिना स्पर्श हुए ही देखती है तथा घ्राणेन्द्रिय गन्ध को, रसनेन्द्रिय रस को और स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्श को, स्पृष्ट और बद्ध होने पर ही जानती है। इस अपेक्षा से चक्षु इन्द्रिय पटुतम, श्रोत्रेन्द्रिय पटुतर और शेष तीन इन्द्रियां पटु होती हैं। पांचों इन्द्रियों के जघन्य और उत्कृष्ट विषय का उल्लेख किया गया है। इन्द्रियों का विषय आत्मांगुल से ही ग्रहण करना चाहिए। श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय 12 योजन, चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय एक लाख योजन से अधिक तथा शेष घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय नौ योजन का है। ये पांचों इन्द्रियां अपने-अपने उत्कृष्ट विषय
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy