________________ [96] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन होता है।87 प्रज्ञापनावृत्ति के अनुसार भावमन के बिना द्रव्य मन होता है, जिस प्रकार भवस्थ केवली के होता है। अतः अंसज्ञी प्राणियों के द्रव्यमन नहीं होने से भाव मन भी नहीं होता है। किन्तु भाव मन के अभाव में भी द्रव्य मन होता है। जैसे भवस्थ केवलियों के चिन्तत मनन रूप भाव मन का अभाव होते हुए भी अनुत्तर देवादि को उत्तर देने के लिए प्रवर्तित द्रव्य मन होता है। इस प्रकार ग्रन्थों में भी एकेन्द्रियादि असंज्ञियों के भाव मन स्वीकार नहीं किया है। क्योंकि द्रव्य मन के बिना (मनोवर्गणा के द्रव्यों के आलम्बन के बिना) भाव मन संभव नहीं है। द्रव्य लोक प्रकाश में तो स्पष्ट शब्दों में 'द्रव्यचित्तं विना भावचित्तं न स्याद् संज्ञिवत्' द्रव्य चित्त के बिना भाव चित्त (मन) का निषेध किया है। उदाहरण भी संज्ञी प्राणियों का दिया है। अर्थात् असंज्ञी प्राणियों में द्रव्य चित्त के अभाव में भाव चित्त नहीं माना है। इस प्रकार श्वेताम्बर साहित्य में तो एकेन्द्रियादि असंज्ञी प्राणियों में भाव मन स्वीकार नहीं किया गया है। अर्थोपलब्धि में मन का महत्त्व जिस प्रकार चक्षुष्मान् व्यक्ति को दीपक के प्रकाश में स्फुट अर्थ की उपलब्धि होती है, वैसे ही मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव को चिन्तानप्रवर्तक मनोद्रव्य के प्रकाश में अर्थ की उपलब्धि स्पष्ट होती है। शब्द आदि अर्थ में छह प्रकार (पांच इन्द्रिय और एक मन) का उपयोग होता है। अविशुद्ध चक्षुष्मान् को मंद, मंदतर प्रकाश में रूप की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, वैसे ही असंज्ञी संमूर्छिम पंचेन्द्रिय को अर्थ की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, क्योंकि क्षयोपशम की मंदता के कारण उसमें मनोद्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति भी बहुत अल्प होती है। मूर्च्छित व्यक्ति का शब्द आदि अर्थों का ज्ञान अव्यक्त होता है, वैसे ही प्रकृष्ट ज्ञानावरण के उदय के कारण एकेन्द्रिय जीवों का ज्ञान अव्यक्त होता है। इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ज्ञान शुद्धतर, शुद्धतम होता है। मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है। इसको विशेषावश्यकभाष्य में उदाहरण से समझाते हैं कि चक्रवर्ती के चक्ररत्न में जो छेदन करने की शक्ति होती है, वह सामान्य तलवार आदि में नहीं होती है। दोनों में छेदक का गुण होते हुए भी शक्ति में हीनता है, उसी प्रकार सामान्य रूप से जीवों में चैतन्यगुण समान होने पर भी समनस्क जीवों में अवग्रह आदि सम्बन्धी वस्तुबोध की जो पटुता होती है, वैसी पटुता एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीवों में नहीं होती है। मन का उपयोग मन एक साथ अनेक अर्थों को ग्रहण कर सकता है, किन्तु एक साथ दो क्रियाएं या दो उपयोग नहीं हो सकते। क्योंकि उपयोग युगपत् नहीं होते। सामान्य की अपेक्षा से एक साथ अनेक अर्थों का ग्रहण होता है, किन्तु विशेष की अपेक्षा एक समय में एक ही अर्थ का ग्रहण होता है। 90 क्या मन और मस्तिष्क एक हैं? __ मन और मस्तिष्क में गहरा सम्बन्ध है। इन्द्रियों के द्वारा विषय का ग्रहण होता है, मस्तिष्क उनका संवेदन करता है तथा मन उस पर पर्यालोचन अर्थात् हेयता-उपादेयता के चिन्तन का कार्य 187. अतएव च द्रव्यचित्तं भावचित्तं न स्याद संजीवत् विनापि भावचित्तं तु, द्रव्यतो, जिनवद्भवेत्। - द्रव्य लोक प्रकाश सर्ग 3 गाथा 577 पृ. 163 188. तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ - भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति ,यथा भवस्थ केवलिनः इति / ___ - द्रव्य लोक प्रकाश, सर्ग 3, पृ. 163 189. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 510-514 190. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2442, 2445