________________ [94] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन विषय-ग्रहण की दृष्टि से इन्द्रियाँ एकदेशी हैं, अतः वे नियत देशाश्रयी कहलाती हैं। किन्तु ज्ञान-शक्ति की दृष्टि से इन्द्रियाँ सर्वात्मव्यापी हैं। इन्द्रिय और मन क्षायोपशमिक-आवरण जन्य विकास के कारण से है। आवरण विलय सर्वात्म-देशों का होता है।181 मन विषय-ग्रहण की दृष्टि से भी शरीर-व्यापी है। जैन दर्शन में सुख-दुःखादि के प्रत्यक्ष के लिए मन को एकांत रूप से कारण स्वीकार नहीं किया गया है। अकलंक के अनुसार "वस्तुतः गरम लोहपिण्ड की तरह आत्मा का ही इन्द्रिय रूप से परिणमन हुआ है, अत: चेतन रूप होने से इन्द्रियाँ स्वयं सुख-दुःख का वेदन करती हैं। यदि मन के बिना भावेन्द्रियों से सुख-दुःखानुभव न हो तो एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को सुख-दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए। गुणदोष विचारादि मन के स्वतंत्र कार्य हैं। मनोलब्धि वाले आत्मा को जो पुद्गल मन रूप से परिणत हुए हैं वे अन्धकार तिमिरादि बाह्येन्द्रियों के उपघातक कारणों के रहते हुए भी गुण दोष विचार और स्मरण आदि व्यापार में सहायक होते ही हैं, इसलिए मन का स्वतंत्र अस्तित्व है।"182 मन का अधिकारी कौन? व्यक्त चेतनत्व की अपेक्षा से संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी ही मन के अधिकारी होते हैं, पर संज्ञीश्रुत की अपेक्षा से दूसरे प्राणी भी मन के अधिकारी हैं। संज्ञी श्रुत के वर्णन में तीन प्रकार की संज्ञाएं बताई हैं,183 जो निम्न प्रकार से हैं - 1. दीर्घकालिकी संज्ञा - जिससे जीवों में ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो वह दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है अथवा जिस संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान हो अर्थात् मैं यह कार्य कर चुका हूँ, यह कार्य कर रहा हूँ और यह कार्य करूंगा, इस प्रकार का चिन्तन दीर्घकालिकी संज्ञा है। जिन जीवों में यह संज्ञा होती है वह संज्ञी और जिन जीवों में यह योग्यता नहीं उन्हें असंज्ञी कहते हैं। यह संज्ञा देव, नारकी, गर्भज तिर्यंचों, गर्भज मनुष्यों में होती है। 2. हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा - जिसमें प्रायः वर्तमान कालिक ज्ञान हो उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं अर्थात् अपने शरीर की रक्षा के लिए इष्ट वस्तुओं को ग्रहण करने तथा अनिष्ट वस्तुओं का त्याग करने रूप जो उपयोगी वर्तमानकालिक ज्ञान होता है, उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। जिन जीवों में यह संज्ञा होती है वह संज्ञी और जिन जीवों में यह योग्यता नहीं उन्हें असंज्ञी कहते हैं। यह संज्ञा द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीवों में होती है। 3. दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा - जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर-निर्जरा, बंध, मोक्ष, इन नव तत्त्वों का सम्यग् यथार्थज्ञान और रुचि रूप जो सम्यग्दर्शन है, वह दृष्टिवाद की अपेक्षा (सम्यक्त्व की अपेक्षा) संज्ञा है। जिन जीवों में यह संज्ञा होती है वह संज्ञी और जिन जीवों में यह योग्यता नहीं उन्हें असंज्ञी कहते हैं। यह संज्ञा सम्यग्दृष्टि जीवों में पाई जाती है अथवा एक अपेक्षा से यह संज्ञा मात्र चौदह पूर्वी साधकों को होती है। 181. सव्वेणं सव्वे निजिण्णा। - युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भाग 1, श.1, उ. 3, पृ. 65 182. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 5.19.30, पृ. 220 183 (अ) आचार्य महाप्रज्ञ, नंदी, सूत्र 62,63,64, (ब) विशेषावश्यकभाष्य गाथा 504 से 509 और (स) पं. सुखलाल संघवी, कर्मग्रन्थ भाग 1, गाथा 6 का विवेचन, पृ. 16-17