________________ [80] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन करने में समर्थ होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि इन इन्द्रियों से विषय सम्बद्ध होता है तभी ये अर्थग्रहण करती हैं। अतः ये दोनों इन्द्रिया भी प्राप्यकारी हैं। चक्षु इन्द्रिय की अप्राप्यकारिता न्यायादि वैदिक दर्शन चक्षु को प्राप्यकारी ही स्वीकार करते हैं। इसके सम्बन्ध में उनके अनेक तर्क हैं, जो यहाँ जैनदार्शनिकों द्वारा प्रदत्त खण्डन के साथ प्रस्तुत हैं - 1. नैयायिकों का कथन है कि चक्षु इन्द्रिय का अनुग्रह और उपघात होता है। जिनभद्रगणि इसका समाधान करते हुए कहते हैं चक्षु इन्द्रिय में अपने ग्राह्य विषय के कारण उपघात और अनुग्रह नहीं होता है। जैसे कि चक्षु इन्द्रिय प्राप्त वस्तु के साथ सम्बद्ध होकर उसका ज्ञान करती तो अग्नि आदि के दर्शन में, स्पर्शनेन्द्रिय के समान उसके जलने रूप उपघात और कोमल वस्तु को देखने पर अनुग्रह होना चाहिए। लेकिन ये दोनों प्रसंग चक्षुइन्द्रिय में नहीं होते हैं। इसलिए चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। शंका - यह कथन अनुचित है, क्योंकि चन्द्रमा आदि को देखने से चक्षु का अनुग्रह और सूर्य आदि को देखने से नेत्र का उपघात प्रत्यक्ष है, इसलिए चक्षु इन्द्रिय भी प्राप्यकारी है। समाधान - यदि इसको स्वीकार भी करलें तो भी चक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि हमारे अनुसार चक्षु इन्द्रिय स्वयं अन्य स्थान पर जाकर अथवा किसी देशविशेष को प्राप्त करके रूप को नहीं देखती है, अपितु अपने ग्राह्य विषय (रूप) को योग्य देश में दूर स्थित होकर देखती है। यहाँ हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि विषय (रूप) के ग्रहण के समय चक्षु इन्द्रिय अनुग्रह और उपघात से रहित होती है, किन्तु बाद में लम्बे समय तक देखते रहने पर ज्ञाता (द्रष्टा) को सूर्य की किरणें अथवा चन्द्रमा की किरणें स्पृष्ट (प्राप्त) करती हैं, तब उन सूर्य की किरणों से अथवा चन्द्रमा की किरणों से स्वभावतः चक्षु का उपघात और अनुग्रह हो सकता है। फिर भी कहें कि चक्षु इन्द्रिय किसी विषय को स्पृष्ट करके ही जानती है, तो फिर उसी चक्षु में लगे हुए अर्थात् चक्षु के साथ ही स्पृष्ट जो अंजन, रज, मल आदि को भी जानना चाहिए, किन्तु वह अंजनादि को नहीं देख पाती है, इसलिए नेत्र अप्राप्यकारी हैं। 20 2. नैयायिक कहते हैं कि चक्षु बाह्येन्द्रिय है। प्रभाचन्द्र उत्तर में कहते हैं कि चक्षु इन्द्रिय बाह्येन्द्रिय नहीं है, क्योंकि बाह्येन्द्रिय के जो पांच लक्षण हैं वे चक्षु इन्द्रिय में घटित नहीं होते हैं - 1. बाहर के अर्थ ग्रहण के अभिमुख होना, 2. बाह्य प्रदेशों में रहना 3. बाह्य कारण से उत्पन्न होना 4. इन्द्रिय के स्वरूप से अतीत होता और 5. मन से अलग होना। विषय ग्रहण में भावेन्द्रिय का महत्त्व है, द्रव्येन्द्रिय का नहीं। विद्यानंद के अनुसार जो बाहर दिखता है, उस गोलक को चक्षु कहते हैं, तो उसकी अप्राप्यकारिता स्वतः ही सिद्ध है। 3. न्याय-वैशेषिकों का मानना है कि चक्षुइन्द्रिय से किरणें निकलकर अर्थ को प्राप्त करती हैं, इससे यह गतिवाला है। जिनभद्रगणि के अनुसार चक्षु गतिशील भी नहीं है, क्योंकि चक्षु स्वविषय के स्थल पर नहीं जाता है और स्व-विषय भी चक्षु के स्थान पर नहीं आता है। अकलंक कहते हैं कि चक्षु डाली और चन्द्रमा को एक साथ देख सकता है, इसलिए वह गतिशील नहीं है।21 प्रभाचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार चन्द्रमा और चन्द्रकांत मणि में उष्णत्व नहीं होने से उनको तेजस नहीं माना है, वैसे ही चक्षु भी तेजस रूप नहीं है। यदि चक्षु तेजस रूप होता तो इसमें सूर्य की तरह उष्णता अवश्य होती तथा चक्षु रश्मित्व वाला भी नहीं है, क्योंकि महाज्वाला के समान चक्षु का प्रतिस्खलन प्रतीत नहीं होता है। 22 119. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 205-208 120. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 209-212 121. राजवार्तिक 1.19.3 122. न्यायकुमुदचन्द्र पृ. 81