________________ [76] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अकलंक के अनुसार इन्द्रियों के आकार की रचना मात्र शरीर में नहीं होकर आत्म-प्रदेशों पर भी होती है। अतः विशिष्ट इन्द्रिय से संयुक्त आत्म प्रदेशों में उस इन्द्रिय के विषय को ग्रहण करने की विशेष क्षमता उत्पन्न हो जाती है। ऐसे आत्म-प्रदेशों को आभ्यंतर निर्वृत्ति कहा जाता है। ___ मलयगिरि कहते हैं कि बाह्य निर्वृत्ति पपड़ी आदि रूप से विविध-विचित्र प्रकार की होती है अतः उसको प्रतिनियत रूप से नहीं कहा जा सकता। जैसे कि मनुष्य के कान दोनों नेत्रों के बगल में होते हैं उसकी भौहें कान के ऊपर के भाग की अपेक्षा सम रेखा में होती हैं, किन्तु घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीक्ष्ण होते हैं इत्यादि। अत: जाति भेद से बाह्य निर्वृत्ति अनेक प्रकार की होती है। 102 आभ्यन्तर निर्वृत्ति सभी प्राणियों के समान ही होती है। आभ्यंतर निर्वृत्ति की अपेक्षा ही संस्थान का उल्लेख करते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं कि श्रोत्रेन्दिय का आभ्यंतर आकार कदम्ब पुष्प के समान चक्षुरिन्द्रिय का मसूर घान्य के समान, घ्राणेन्द्रिय का अतिमुक्तक पुष्पचन्द्रिका के समान, रसनेन्द्रिय का क्षुरप्र के समान होता है।103 केवल स्पर्शनेन्द्रिय निर्वृत्ति के बाह्य और आभ्यंतर भेद नहीं होते हैं। क्योंकि स्पर्शनेन्द्रिय निर्वृत्ति सब प्राणियों के एक सरीखी नहीं होती है।104 उपकरण द्रव्येन्द्रिय का स्वरूप पूज्यपाद के अनुसार जो निर्वृत्ति का उपकार करता है, उसे उपकरण कहते हैं। निर्वृत्ति में विद्यमान दृष्टि आदि क्रिया के सहायक अंग-उपांग उपकरण हैं। निर्वृत्ति के समान उपकरणेन्द्रिय के भी बाह्य और आभ्यंतर दो भेद होते हैं। जैसेकि चक्षुरिन्द्रिय में कृष्ण शुक्ल मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी समझना चाहिए।05 जिनभद्रगणि कहते हैं कि जो विषय ग्रहण करने में समर्थ पौद्गलिक शक्ति है, वह उपकरण इन्द्रिय है। निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने पर भी यदि उपकरण इन्द्रिय नष्ट हो जाए तो विषय का ग्रहण नहीं हो सकता है। निर्वृत्ति और उपकरण द्रव्येन्द्रिय में अन्तर द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण रूप भेद का कारण परस्पर आधार-आधेय सम्बन्ध के कारण है। मलयगिरि नंदीवृत्ति में इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि बाह्य निर्वृत्ति तलवार के समान तथा आभ्यंतर निवृत्ति तलवार की धार के समान होती है। आभ्यंतर निर्वृत्ति की शक्ति विशेष ही उपकरण द्रव्येन्द्रिय है। जिस प्रकार शक्ति और शक्तिमान् किसी अपेक्षा से भिन्न होते हैं, वैसे ही आभ्यंतर निर्वृत्ति और उपकरण भी किसी अपेक्षा से भिन्न होते हैं। अतः आभ्यंतर निर्वृत्ति होने पर किसी के द्रव्यादि से उपकरण इन्द्रिय नष्ट भी हो सकती है। जैसे कि कदम्ब पुष्प के समान आकार वाली श्रोत्र की आभ्यन्तर निर्वृत्ति विद्यमान है, लेकिन भयंकर मेघ गर्जना आदि से उपकरण इन्द्रिय की शक्ति नष्ट हो जाने से प्राणी को शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता है।107 101. राजवार्तिक, 2.17.3 102. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 75 103. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2995 104. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 75 105. सर्वार्थसिद्धि 2.17, पृ 127, राजवार्तिक 2.17.5, षटखण्डागम, पु. 1, सूत्र 1.1.33, पृ. 236 106. विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तंपि। जं नेह तदवघाए गिण्हइ निव्वत्तिभावे वि।-विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2996 107. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 75