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व्यक्ति के बिम्ब से व्यक्त किया गया है जो सब कुछ प्राप्त कर लेने के बावजूद भी प्यासा ही रहता है। भरत के दिग्विजय के संबंध में निम्नलिखित पंक्तियाँ दृष्टव्य है
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चला काफिला रत्नों का ले, दिग्जय की शुभ आशा । सब कुछ पाकर भी मानव मन रहता प्रतिपल प्यासा ।।
ऋ. पृ. 165
'सागर' और 'मधुकर के बिम्ब से भरत की अतृप्त ईच्छा का बिम्बांकन अभूतपूर्वक है
इतनी नदियों का जल लेकर, नहीं हुआ यह सागर तृप्त । दर्प बढ़ा है पा पराग रस, मधुकर आज हुआ है दृप्त ।
ऋ. पृ. 193 महत्वाकांक्षा रूपी बाढ़ नदी के संपूर्ण तटबन्धों को तोड़ अमर्यादा का ही प्रदर्शन करती है। अट्ठानबे पुत्र भरत की अमर्यादित आकांक्षा का उद्घाटन एवं उनके युद्ध के आमंत्रण को 'नदी की बाढ़' के बिम्ब से प्रस्तुत करते हुए पिता ऋषभ से कहते हैं
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पूर नीर का आया प्रभुवर ! उसको दो नूतन तट-बंध |
ऋ. पृ. 196 अंगारकर के स्वप्न से भी तृष्णा यानी अतृप्त ईच्छा की ओर संकेत करते हुए उसे लम्बे चीर के बिम्ब से व्यक्त किया गया है
तालाबों का, सरिताओं का, आखिर अंभोनिधि का नीर । पिया चित्र! फिर भी है प्यासा, तृष्णा का लंबा है चीर ।।
ऋ. पृ. 199 अनंत ईच्छाएं भी युद्ध का कारण बनती हैं। सागर की गहराई के बिम्ब भरत की अतृप्त इच्छा का चित्रण निम्नलिखित पंक्तियों में है दृष्टव्य
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भरत ने जीते सभी नृप, बाहुबली संतुष्ट है,
चाह की कब थाह सागर, तीर से क्या तुष्ट है ?
ऋ. पृ. 229 इस प्रकार ऋषभायण में स्पृहा भाव का अंकन किया गया है ।
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