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और बिम्ब सिक्के के दो पहलू की भाँति हैं क्योंकि गुण रस के नित्यधर्म है और रसांग-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव को बिम्ब रूप में प्रकट करते है। रीति का सम्बन्ध शैली से है अर्थात् काव्य की उस पद्धति से है जिसके द्वारा कवि अपनी उद्बुद्ध भावनाओं व अनुभूतियों को शब्द का जामा पहनाता है। गुण दोष अलंकार शैली के तत्व हैं, गुण नित्य तत्व है और अलंकार अनित्य। इसलिए शैली की अभिव्यक्ति एक रूप में नहीं होती, अनेक रूपों में होती है, जिससे भाव, गुण, अलंकार आदि विषयगत बिम्बों के रूप में प्रकट होते हैं। चूंकि 'रीति में शब्दार्थ को प्रमुख स्थान दिया गया है, इसलिए शब्दों से श्रोत अथवा नाद बिम्ब सहज रूप में प्रस्फुटित होते हैं । अर्थ व्यक्ति के संबंध में वामन ने 'स्तुस्वभाव स्फुट त्वमर्थ व्यक्तिः के कथन से वस्तु को तत्काल स्पष्ट कर देने वाली अर्थव्यक्ति को महत्व दिया है। प्रकारान्तर से अर्थव्यक्ति बिम्ब संयोजन का कारण बनता है। इस संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र का कथन प्रासंगिक है 'रीतियों और वृत्तियों की कल्पना में श्रोत बिम्बों का आधार अत्यन्त स्पष्ट है और उधर अर्थव्यक्ति जैसे गुण की परिभाषा में शब्द योजना द्वारा उत्पादित बिम्ब की स्फटता को ही अर्थ प्रसादन का प्रमाण माना गया है। (54)
6. औचित्य सिद्धांत में बिम्ब संकेत - भारतीय समीक्षा में आचार्य क्षेमेन्द्र 'औचित्य' सिद्धांत के प्रवर्तक हैं। उनके अनुसार 'उचितस्य भावः औचित्यम्' तथा
औचित्यं रस सिद्धस्य स्थिरम् काव्यस्थ जीवितम् अर्थात् काव्य रस सिद्ध है किंतु उसका स्थिर, अनश्वर जीवित तो औचित्य ही है। रस, अलंकार, पद वाक्य, क्रिया, कारक, लिंग, विशेषण प्रबन्धार्थ आदि का वाक्य में उचित प्रयोग से व्यवस्थित एवं सम्यक बिम्ब उद्घाटित होता है। अलंकार और गुण के संबंध में क्षेमेन्द्र लिखते हैं
कि -
उचित स्थान विन्यासाद अलंकृतिरलंकृतिः । औचित्याद च्युता नित्यं भवन्त्येव गुणाः गुणाः ।। (65)
अर्थात् काव्य में जब अलंकार और गुण का उचित प्रयोग होगा तभी वे अलंकार अथवा गुण कहाएंगे अन्यथा नहीं। काव्य में यही औचित्य प्रयोग बिम्ब का कारण बनता है। बिम्ब का प्रधान लक्ष्य ही है अमूर्त को मूर्त रूप में प्रस्तुत करना। मूर्तन की इस क्रिया में विषय को, मूर्तित किया जाता है। वक्रोक्ति, ध्वनि, रीति, रस
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