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है और न मैंने लेखन को दक्षता के साथ जोड़ा है। मेरा लेखन अपेक्षा से जुड़ा है। गुरूदेव ने जिस अपेक्षा की ओर इंगित किया उस ओर लेखनी गतिशील हो गयी। (2) गुरू की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जो शिष्य काव्यसागर में उतरा हो, उसके निष्काम कर्मयोग की थाह कोई साधक ही लगा सकता है। सद्गुरू आचार्य तुलसी की धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक भावनाओं की प्रतिपूर्ति ही आचार्य महाप्रज्ञ के काव्य का प्रयोजन है-जिसमें उनकी आत्माभिव्यक्ति एवं लोकमंगल की भावना समाहित है। मुनि दुलहराज ने आचार्य श्री के निम्नलिखित काव्योददेश्यों का उल्लेख किया है :
व्यक्ति व्यक्ति का निर्माण एवं सुखी समाज की रचना. ऐसे समाज की रचना जिसमें विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हो.
व्यक्ति की अभ्यान्तर ज्योति को प्रज्जवलित करना.
विवेक चेतना और नैतिक चेतना का जागरण करना. मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के सूत्रों का अवबोध करना. मानवीय संवेदना का जागरण करना. दर्शन की जीवन के साथ संयुति करना. मानवीय चेतना में समता और अनुकम्पा की जागृति करना. अपने उत्तरदायित्व का अवबोध देना. (73)
इस प्रकार आचार्य महाप्रज्ञ महत् उद्देश्यों से परिपूर्ण, मानवीय संवेदना तथा आध्यात्मिक चेतना से सम्पृक्त नवोन्मेषशालिनी समता को प्रतिष्ठित करते हुए जन-जन को आत्मानन्द परमानन्द का संदेश देते हैं और यह दिव्य संदेश ही उनके काव्य का प्रयोजन है।
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