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सम्यग्दृष्टि को भोग बन्ध का कारण नहीं
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सांसारिक सुखों की अभिलाषा नहीं होती।' अर्थात् सम्यग्दृष्टियों को सुख के आकर्षण का अभिप्राय नहीं होता।
___ गाथा २७१ से २७६ अन्वयार्थ-'जैसे रोग की प्रतिक्रिया करता हुआ कोई रोगी पुरुष उस रोग अवस्था में रोग के पद को नहीं चाहता अर्थात् सरोग अवस्था को नहीं चाहता (अर्थात् ज्ञानी स्वयं जानता है कि यह जो मैं राग-द्वेषरूप परिणमता हूँ, वह मेरी रोगग्रस्त अवस्था है, क्योंकि उसने शुद्धात्मा का स्वाद अनुभव किया है तो बारम्बार वह वैसी रागग्रस्त रोगग्रस्त अवस्था क्यों चाहेगा? अर्थात् नहीं चाहता।) तो फिर दूसरे समय रोग उत्पन्न होने की इच्छा के विषय में (अर्थात् नवीन कर्म बन्ध हो, ऐसे कारणों में तो वह किसलिए प्रवर्तेगा? अर्थात् पुरुषार्थ की कमजोरी न हो तो प्रवर्तेगा ही नहीं) तो कहना ही क्या? अर्थात फिर से रोग की उत्पत्ति तो वह चाहनेवाला ही नहीं है। इसी प्रकार जब भावकों द्वारा पीड़ित होता कर्मजन्य क्रियाओं को करनेवाला ज्ञानी किसी भी कर्म पद की इच्छा नहीं करता तो फिर वह इन्द्रियों के विषयों का अभिलाषी है-ऐसा किस न्याय से कहा जा सकता है? - कर्ममात्र को नहीं चाहनेवाले उस सम्यग्दृष्टि को वेदना का प्रतिकार भी असिद्ध नहीं है (अर्थात् प्रतिकार होता है) क्योंकि कषायरूप रोगसहित उस सम्यग्दृष्टि को वेदना का प्रतिकार नवीन रोगादि को उत्पन्न करने में कारणरूप नहीं कहा जा सकता। (अर्थात् उसे उस वेदना का प्रतिकार अर्थात् रोग की दवारूप से सेवित भोग नवीन कर्मों के बन्धरूप नहीं कहे जा सकते), वह सम्यग्दष्टि भोगों का सेवन करते होने पर भी वास्तव में भोगों का सेवन करनेवाला नहीं कहा जाता क्योंकि रागरहित (अर्थात् राग में 'मैंपना' नहीं है, ऐसा सम्यग्दृष्टि) जीव को कर्ताबुद्धि के बिना किये हुए कर्म राग के कारण नहीं हैं। यद्यपि कोई-कोई सम्यग्दृष्टि जीव अर्थात् जघन्यवर्ती (अर्थात् चौथे गुणस्थानवाले) सम्यग्दृष्टि को कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना होती है (अर्थात् कर्ता-भोक्ताभाव देखने को मिलता है) तो भी वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है (क्योंकि उस दिखायी देते कर्ता-भोक्ताभाव में 'मैंपना' न होने से उसे ज्ञानचेतना ही है) कर्म में तथा कर्मफल में रहनेवाली चेतना का फल बन्ध होता है, परन्तु उस सम्यग्दृष्टि को अज्ञानमय राग का अभाव होने से (अर्थात् राग में 'मैंपना' का अभाव होने से) बन्ध नहीं होता इसलिए वह ज्ञानचेतना ही है।'