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दृष्टि का विषय
हम जो सम्यग्दर्शन के लिये भेदज्ञान की विधि समझे हैं कि - प्रथम पुद्गल से भेदज्ञान और बाद में जीव के रागादिरूप भाव कि जो कर्म=पुद्गल आश्रित है, उनसे भेदज्ञान और उस भेदज्ञान के पश्चात् ही शुद्धात्मा प्राप्त होता है। इसीलिए यहाँ बतलाया है कि शरीर के वर्णादि भाव तो आत्मा के हैं ही नहीं परन्तु जो रागादि भाव हैं, वे (भाव रागादिभाव) तो जीव में ही होते हैं अर्थात् जीव ही उन रूप परिणमता है, जीव कर्म के निमित्त से उनरूप परिणमता है इसलिए यदि भाव रागादिभावों को जीव का कहें तो कहा जा सकता है, उससे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ?
भावार्थ-'(क्रोधादिभावों को जीव का कहना, वह नयाभास ही है ऐसी) ऊपर कही गयी शंका योग्य नहीं है, क्योंकि वे क्रोधादिभाव तो जीव में होनेवाले औदयिक भावरूप हैं, इसलिए वे जीव के तद्गुण (जीव का ही परिणमन) है; और वे जीव का नैमित्तिकभाव होने से उन्हें सर्वथा पुद्गल का नहीं कहा जा सकता, परन्तु जीव को वर्णादिवाला कहने में आवे, वहाँ तो वर्णादि सर्वथा पुद्गल के ही होने से उन्हें जीव का किस प्रकार कहा जा सकता है?
तथा क्रोधादिभावों को जीव का कहने में तो यह प्रयोजन है कि - परलक्ष्य से होनेवाले क्रोधादिभाव क्षणिक होने से और आत्मा का स्वभाव नहीं होने से वे उपादये नहीं हैं इसलिए उनका अभाव करना चाहिए, ऐसा सम्यग्ज्ञान होता है इसलिए (परन्तु जो लोग एकान्त से शुद्धता के भ्रम में होते हैं, वे क्रोधादि करने पर भी, उन्हें अपने नहीं मानकर स्वच्छन्दी होते हैं, वह सम्यग्ज्ञान नहीं परन्तु मिथ्यात्व है) क्रोध को जीव का कहने में तो उपर्युक्त सम्यक्नय लागू पड़ सकता है (अर्थात् जो उन्हें एकान्त से पर का मानते हैं, वे मिथ्यात्वी हैं) परन्तु जीव को वर्णादिवाला कहने में तो कुछ भी प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए जीव को क्रोधादिवाला कहनेवाले असद्भूतव्यवहारनय में तो नयाभासपने का दोष नहीं आता परन्तु जीव को वर्णादिवाला कहने में तो वह दोष आता है, इसलिए वह नयाभास है।'
हमने पूर्व में सम्यग्दर्शन की विधि के सन्दर्भ में चर्चा करते समय जो निर्विकल्प अनुभूतिरूप सम्यग्दर्शन बतलाया है, वही भाव विशेष स्पष्ट करते हुए आगे बतलाते हैं कि - तब वहाँ कोई भी नय का अवलम्बन नहीं है।
गाथा ६४८-अन्वयार्थ-'उस स्वानुभूति की महिमा इस प्रकार है कि-व्यवहारनय में भेद दर्शानेवाले विकल्प उठते हैं और वह निश्चयनय सर्व प्रकार के विकल्पों का निषेध करनेवाला होने से (नेति-नेतिरूप होने से) एक प्रकार से उसमें निषेधात्मक विकल्प होता है, तथा वास्तविक रूप से देखने में आवे तो स्वसमयस्थिति में (स्वानुभूति में) न (व्यवहारनय का विषयभूत) विकल्प है और न (निश्चयनय का विषयभूत) निषेध है, परन्तु केवल चेतना का स्वात्मानुभवन है।'