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दृष्टि का विषय
का विषय है' अर्थात् कथन कोई भी हो परन्तु व्यवस्था तो यहाँ बतलायी है वैसी अर्थात् गौण करने की और मुख्य करने की ही है जो पूर्व में हम विस्तार से समझे ही हैं।
इसी प्रकार यदि कोई कहे कि - आत्मा बाहर से अशुद्ध और अन्दर से शुद्ध तो ऐसा कथन अपेक्षा से समझना। एकान्तत: अर्थात् वास्तविकरूप नहीं क्योंकि जैसा आत्मा बाहर है, वैसा ही अन्दर है, अर्थात् आत्मा के अन्दर के और बाहर के प्रत्येक प्रदेश में (क्षेत्र में) अनन्तानन्त कार्माण वर्गणाएँ क्षीर-नीरवत् लगी होने से, जैसी अशुद्धि बाहर के क्षेत्र में है, वैसी ही अशुद्धि अन्दर के क्षेत्र में भी है, परन्तु अपेक्षा से बाहर अर्थात् विशेष भावरूप विभावभाव और अन्दर अर्थात् सामान्यभावरूप परमपारिणामिकभाव जो कि तीनों काल शुद्ध ही है और इसलिए ही व्यक्तरूप आत्मा अशुद्ध और अव्यक्तरूप आत्मा शुद्ध है और इस अपेक्षा से अन्दर से शुद्ध और बाहर से अशुद्ध ऐसा कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं। कोई आत्मा में अन्दर एकान्त शुद्ध ध्रुवभाव खोजता हो तो, वैसा एकान्त शुद्ध ध्रुवभाव आत्मा में नहीं है। अर्थात् कोई भी कथन उसकी अपेक्षासहित समझना अनिवार्य है, नहीं तो ऐसा माननेवाले नियम से भ्रमरूप ही परिणमेंगे।
इसी प्रकार अन्य कोई कहता है कि आप तो दृष्टि के विषय में प्रमाण का द्रव्य लेते हो तो दोष आयेगा। उन्हें हम बतलाते हैं कि पूर्व में हमने विस्तार से समझाये अनुसार, जितने प्रदेश (क्षेत्र) प्रमाण के द्रव्य के हैं, उतने ही प्रदेश (क्षेत्र) परमपारिणामिकभावरूप दृष्टि के विषय के हैं अर्थात् उतने ही प्रदेश शुद्धात्मा के हैं। दूसरा, उस प्रमाण के द्रव्य को ही हम शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के चक्षु से देखते हैं और इस कारण से हम उसे ही परमपारिणामिकभाव कहते हैं कि जिसे आप प्रमाण चक्षु से देखने पर, प्रमाण का विषय कहते हो और उस प्रमाण के विषय में आप शुद्ध और अशुद्ध भाव नहीं परन्तु भाग मानते हो, इसलिए आपकी दृष्टि में दोष है, तो उसमें हमारा कोई दोष नहीं है। हम तो उसे ही अर्थात् प्रमाण के द्रव्य को ही शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से उसे ही परमशुद्ध ऐसा परमपारिणामिकभाव अनुभव करते हैं और परम सुख का अनुभव करते हैं तो इसलिए आप भी दष्टि बदलकर उसे ही शुद्ध देखो और आप भी उसका अर्थात सत-चित-आनन्दस्वरूप का आनन्द लो, ऐसी हमारी प्रार्थना है; यह ही सम्यग्दर्शन का स्वरूप है और यह ही सम्यग्दर्शन की विधि है, क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है अर्थात् प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है यह ही नियम है।
इस कारण से हमारा आग्रह है कि जैसी है वैसी' वस्तु व्यवस्था समझकर प्रमाण के विषय का जैसा है वैसा' ज्ञान करके फिर उसमें से ही शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय ग्रहण करने योग्य